SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन भाग ६ ठिकाने ला दें और उनके गुरुपद के गर्व को भी चूर-चूर कर दें। एक साधु ने एक मूर्ख और अविनीत। शेष्य मूँड़ लिया। लोगों के पूछने पर वे कहते -"कोई सेवा करने वाला तो चाहिए न । जैसा है, वैसा ही सही।" एक बार गुरु-शिष्य दोनों गाँव के बाहर एक बगीचे में हरे हुए थे। गुरुजी ने शिष्य को गाँव में भिक्षा के लिए भेजा। भिक्षा में उसे बत्तीस कही बड़े मिले। आज उसे भूख सता रही थी। भिक्षा लेकर जब वह लौट रहा था तो सोचा भूख बहुत लगी है और दहीबड़े आये हैं। अतः गुरुजी के हिस्से के आधे व्हीबड़े रखकर बाकी के अपने हिस्से के दहीबड़े खाने में क्या हर्ज है ?" बस उसने पात्र में से १६ दहीबड़े निकाले और उदर-देव को चढ़ा दिये। ३६० सुलगती हुई क्षुधाग्नि में दहीबड़े पड़ा ही उन्होंने उसकी भूख और बढ़ा दी, साथ ही समुचित मसालों से युक्त दहीबड़ों के खाने की लालसा भी चलते-चलते उसे विचार आया- "गुरुजी को क्या पता कि मिक्षाचरी में कितने दहीवड़े मिले हैं ? वे सोलह दहीबड़े जानकर मुझे अपने हिस्से के आठ दे देंगे। तो फिर अपने हिस्से के ये आठ दहीबड़े अभी ही क्यों न खा लूँ।" याँ वह आठ दहीबड़े और खा गया। इसी प्रकार विचार करते-करते उस कुशिष्य ने क्रमशः चार, दो और अन्त में एक दहीबड़ा खाकर कुल ३१ दहीबड़ों को तो उदरकोट में पहुँचा दिया। अब केवल एक बड़ा बचा था। वही ले जाकर गुरुजी को सौंप दिया गुरु ने पात्र में लगे दही को देखकर अनुमान लगा लिया कि अवश्य ही बड़ों की संख्या अधिक होगी। गुरु ने संदिग्ध दृष्टि से आँखें तरेरकर शिष्य से पूछा - "यह एक बड़ा किसने दिया ?" शिष्य धूर्त होने के साथ चालाक भी था। गुरु की कुपित दृष्टि को भाँपकर उसने सच बोलना ही उचित समझा। वह बोला- “गुरुदेव ! बड़े तो बत्तीस मिले थे, लेकिन पाँच बार मैं अपने आधे-आधे हिस्से कि बड़े खा गया। इस कारण 31 बड़े तो पेट में पहुँच गए, आपके लिए सिर्फ एक बड़ा सुरक्षित रहा है। " शिष्य का उत्तर सुनकर गुरुजी के क्रोध की सीमा न रही। वे बोले – “क्यों रे धूर्त ! तूने अकेले ने ३१ बड़े कैसे खा लिये " गुरु का यह प्रश्न सुनकर कुशिष्य क्षणभर तो स्तब्ध हो गया, दूसरे ही क्षण धृष्टतापूर्वक गुरु की ओर देखा। फिर पात्र में रखे उस बड़े को लपककर उठाकर और मुँह में रखता हुआ बोला- “गुरुजी ऐसे खा लिये।" गुरुजी आँखें फाड़ते हुए उस कुशिष्य की धृष्टता देखते ही रह गये। वे मन ही मन ऐसे धूर्त, चालाक एवं दृष्ट कुशिष्य के लिए पश्चात्ताप करने लगे। नीतिकार ठीक ही कहते हैं मूर्ख शिष्यो न कर्तव्यो, गुरुणा सुखमिच्छता । विडम्बयति सोऽत्यन्तं यवाहि वटभक्षकः । "जो गुरु सुख से जीना चाहता है, अंते भूलकर भी मूर्ख को शिष्य नहीं बनाना
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy