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________________ कुशियॊ को बहुत कहना भी विलाप ३८६ वे वापस न जाएँ। उनका वैराग्य वर्षों पुराना है। वर्षों से वे कहते आ रहे थे कि मैं साधु बन जाऊँगा। वे सन्तोजी महाराज के पास गये हैं। वे नहीं आ सकते। तुम कोई ठग मालूम होते हो।" वह वोला---'मैं ठग नहीं, तुम्हारा पति ही हूँ। मैं सन्तोजी महाराज के पास गया तो था, लेकिन वह रास्ता बहुत कठिन है। एढ लग रही है, दरवाजा खोलो, मैं भूखा हूँ।" वह कहने लगी—"मेरे पति ऐसे काया नहीं हैं कि उनके विचार बदल जाएँ। तुम किसी बुरे इरादे से आए हो। मैं दरवाजा नहीं खोलूंगी।" ज्यों-ज्यों दरवाजा खुलने में विलम्ब होने लगा, त्यों-त्यों वह बेचैन होकर मिन्नतें करने लगा कि "तुम दरवाजा खोलकर तो देखो, मैं वही हूँ। भूख और ठफा के मारे मेरी जान निकली जा रही है। मैं अब न तो तुम्हें कभी सताऊँगा और न हीधिमकाऊँगा। मेरी जान बचाओ।" तब उसने दरवाजा खोलकर अन्दर लिया, कपड़े पहनने को दिये और गर्म-गर्म रोटी बनाकर खिलाई। तबसे उसने गुस्सा करना छोड़ दिया ! पति-पत्नी दोनों सुख से जीवनयापन करने लगे। हाँ, तो मैं कह रहा था कि अगर सन्नोजी पवार शिष्य-लोभी गुरु होते तो वे उस ब्राह्मण की गर्ज करते, उसे खिला-पिलाकर सन्तुष्ट करते, उसकी इच्छानुसार उसे सुख-सुविधा देते। परन्तु जब उसको अपने पूर्व-संस्कारवश गुस्सा आता तब बह गुरु की भी खबर ले लेता, उनकी भी अवज्ञा कर बैठता। इस तरह शिष्य लोलुपता का दण्ड गुरु को भोगना पड़ता। अधिक सन्तान और अधिक शिष्य : अधिक दुःख गृहस्थ जीवन का तो आपको अनुभवां है। जिसके अधिक सन्तान होती है, वह उन्हें भली-भाँति संभाल नहीं सकता, शिक्षा-झोक्षा और सुसंस्कार दे नहीं सकता, इस प्रकार संतान-वृद्धि करने वाले पिता की सनसन धीरे-धीरे अपराधी मनोवृत्ति की बन जाती है, स्वच्छन्द और अविनीत हो जाती है, इस प्रकार के एक या अनेक कुपुत्र पिता के लिए जैसे सिरदर्द हो जाते हैं, वे पिता की बात नहीं सुनते और सामना करने लगते हैं, वैसे ही शिष्यों की वृद्धि करना ही जिस साधु का लक्ष्य हो जाता है, वह जैसे-जैसे व्यक्तियों को मूंड़ लेता है, कई बार तो उन्हें प्रलोभन या किसी प्रकार का लोभ देकर मूंड लेता है, परन्तु एक तो अनेक शिष्य हो के कारण वह उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा साधुजीबन के संस्कारों की ओर पूरा ध्यान नहीं दे पाता, दूसरे अयोग्य और सुसंस्कारहीन होने से उनकी प्रवृत्ति को बलना बहुत कठिन होता है, फिर ऐसे शिष्यवृद्धि करने वाले साधु की वे ही शिष्ष अवज्ञा कर बैठते हैं, अविनीत और स्वच्छन्द हो जाते हैं, कोई न कोई अयोग्य और निन्ध कृत्य कर बैठते हैं। तब उन गुरुओं की आँखें खुलती हैं। फिर उन्हें उन वृतशेष्यों के लिए पछताना पड़ता है। ऐसे मूर्ख और अविनीत शिष्यों से पाना पड़ जाए तो गुरुजी का सारा होश
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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