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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ आचा आचार्यश्री ने कहा-"वत्स ! वह लावण्यमय थी या कुरूप? यह विचार तो मेरे मन में कतई नहीं आया, मेरे मन में से एक असहाय को इस संकट के समय अपवादस्वरूप सहायता करने का ही विचार आ।" शिष्य उस समय तो कुछ नहीं बोला। दूसरे दिन शिष्य ने फिर वही प्रश्न उठाकर कहा- "गुरुजी ! आपने उसता कुछ प्रायश्चित्त लिया ?" गुरुजी बोले- 'मैंने तो उस बाई को कंधे से भी उतार दिया और दिमाग से भी निकाल दिया, पर तेरे दिमाग में अब भी वह भरी हुई है, इसलिए तू प्रायश्चित्त के योग्य है, कि ऐसे कुविचार मन में लाता है। पापकर्म के उदय से तेरी दृष्टि विकृति की ओर ही जाती शिक्षित और शास्त्रज्ञ कुशिष्य तो और भी बुरे हैं वास्तव में ऐसे शिष्यों से गुरु को अञ्चन्त मानसिक क्लेश होता है। ऐसे शिष्य अगर कुछ शिक्षित और शास्त्रज्ञ हो जाते हैं, फिर तो कहना ही क्या ? उनके पंख लग जाते हैं, और पद-पद पर वे गुरु का अपमान करने से नहीं। चूकते अक्खा भगत के शब्दों में उस कुशिष्य का रूप देखिए देहाभिमान तुं पाशेर, विद्या भणता बाध्यो शेर, गुरु थयो त्यां मणमा वयो। पहले सिर्फ पावभर शरीराभिमान था। कुछ विद्या पढ़ ली तो वह अभिमान सेरभर हो गया, अर्थात चार गुना अभिमान बढ़ गया और फिर उस शिष्य के कोई शिष्य हो गया तो फिर पूछना ही क्या, प्तिर तो अभिमान ४० गुना बढ़ गया। इस प्रकार शिक्षित एवं अभिमानी कुशिष्य आम्ने गुरु की पद-पद पर अवगणना किया करता है। गुरु लोभी और शिष्य लालची आजकल शिष्य बनने वालों की हालत ऐसी है कि अपना वैराग्य-भाव इतना जताते हैं कि गुरु भी चक्कर में पड़ जाता है और उनके द्वारा की जाने वाली चापलूसी, वाचालता आदि को विनय एवं नम्रता समझने लगता है। कई बार तो गुरु को शिष्य बनाने का लोभ होता है, और शिष्य को प्रतिष्ठा, सम्मान एवं सुखसुविधापूर्वक आहार -पानी आदि प्राप्त कोने का लोभ होता है। दोनों ही लोभवश अपना-अपना दांवपेंच लगाते हैं। इसलिए कहा है गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दांव । दोनों डूबे बापड़े, बैठ पत्थर की नाव।। गुरु तो बन सकता हूँ, शिष्य नहीं वास्तव में देखा जाए तो ऐसे लालची शिष्य, शिष्य बनने से पहले ही गुरु बन
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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