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कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३८५ न कोई धरती से निकलते हैं, वे अपने-अपने परिवार से आते हैं, परिवार के संस्कारों का उनमें होना स्वाभाविक है, परन्तु यदि उन्हें परिवार से भी उत्कृष्ट एवं प्रबल संस्कार गुरुजनों से मिलें, तो वे पूर्वसंस्कार दबकर नवीन संस्कार उभर सकते हैं। परन्तु गुरुजनों से अच्छे संस्कार न मिलें या अच्छे संस्कार सम्भव है वे ग्रहण न करें तो घटिया संस्कारों की प्रबलता के कारण सुशिष्य न बन गाकेंगे।
प्राचीनकाल में शिष्य बनाते समय गुरु प्रायः उसके जाति-कुल यानी मातृपक्ष और पितृपक्ष देखते थे। खानदानी घर का व्यक्ति सहसा उत्पध पर नहीं चढ़ता, उसकी आँख में शर्म होती है, वह पूर्वापर का, अपने कुल का, अपने सुसंस्कारों का पूरा विचार करता है। इसीलिए शिष्य बनाने से पहले गुरुवर उसके कुल आदि के संस्कारों तथा सद्गुणों की छानबीन करते थे, उसके बा ही उसके माता-पिता या अभिभावकों अथवा पारिवारिक जनों की अनुमति प्राप्त होने पर साधु दीक्षा देते थे। साधु बन जाने के बाद भी उसका पूरा ध्यान रखते थे, साधुता के मौलिक नियमोपनियमों के पालन में उसे सावधान करते रहते थे, गुरु उसके जीवन-गनेर्माण का पूरा दायित्व अपने पर मानते थे, उसे समय-समय पर हितशिक्षा भी देते थे। फिर भी पूर्वकृत अशुभ कर्मोदयवश कोई कुशिष्य निकल जाता तो उसे समझा-बुझाकर सत्पथ पर लाने का प्रयल करते थे। किसी भी प्रकार न सुधरता दिखता तो उसे अपने संघाटक से पृथक् कर देते थे।
प्राचीनकाल के अधिकांश ज्ञानियों को शिष्य बनाने की लालसा प्रायः नहीं होती थी। वे इस विषय में निःस्पृह रहते थे। वे मानते थे कि शिष्यों की संख्या बढ़ाने से मेरा कोई आत्मकल्याण या मोक्ष नहीं हो जाएगा बल्कि शिष्यमोह बढ़ेगा तो अकल्याण ही होगा। कोई अत्यन्त जिज्ञासु और मुमुक्षु आधक शिष्य बनने आता तो वे पहले पूर्वोक्त प्रकार से पूरी छानबीन करने के बाद नि अममत्वभाव से उसे अपना या अपने सहाध्यायी किसी योग्य गुरुभ्राता का शिष्य बनाते थे। शिष्यों की जमात बढ़ाने का उनका उद्देश्य कदापि नहीं रहता था।
जो सच्चे ज्ञानी गुरु होते हैं, उन्हें अपनी महिमा बढ़ाने, अपना बड़प्पन या दबदबा बढ़ाने के लिए अथवा अपनी अधिकाधिक सेवा कराने हेतु शिष्यों की या संगठन, टोले या संघाटक की अपेक्षा नहीं राहती, वे निरपेक्ष भाव से अपने संयम एवं साधुता की साधना करते रहते हैं। जिन्हें आम्मकल्याण की जिज्ञासा होती है, जिनमें आत्मा की उन्नति की तड़पन होती है, वे स्वयं एरु को खोजते हुए आते हैं, और ज्ञानी गुरु उन्हें योग्य जानकर शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं। केवल भाव-अनुकम्पा से प्रेरित होकर उन जिज्ञासु साधकों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए वे गुरु-पद की जिम्मेवारी लेते
यों तो तत्त्वज्ञ गुरु अपनी ओर से किमो शिष्य को खोजने नहीं जाते, किन्तु यदि कोई योग्य सुपात्र साधक हो और वह संसारिक विषयपंक से निकालने की प्रार्थना करता हो, उसकी तीन उमंग हो, तो उसे सहयोग देना उचित प्रतीत होने पर सहयोग