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४०. कुशिष्यों को बहुत कड़ना भी विलाप
धर्मप्रेमी बन्धुओं!
आपके समक्ष कई दिनों से लगातार गातमकुलक के जीवनसूत्रों पर प्रवचन करता आ रहा हूँ। पिछले तीन प्रवचनों में तीन सत्यों का रहस्योद्घाटन किया गया था, वे तीनों जीवनसूत्र एक दूसरे से सम्बन्धित है। इस श्रेणी के जीवनसूत्रों में क्रमशः नैतिक तथ्य बताये गये हैं
१-अरुचिमान को परमार्थ-कथन करना वेलाप है। २-परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा अर्थ-कथन विलाप है। ३—विक्षिप्तचित्त के समक्ष अर्थ-कथन काना विलाप है। और अब इसी श्रेणी से सम्बन्धित चौथा कोवनसूत्र है
'बहू कुसीसे कहिए वेलावो।' 'कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप-तुत्व है।'
महर्षि गौतम ने इसमें साधक जीवन के एक महत्त्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन किया है। गौतमकुलक का यह चौंतीसवाँ जीवनसूत्र है! शिष्यलोलुपता : कुशिष्यों का प्रवेश-द्वार
आज भारतवर्ष में लगभग ७० ला साधुओं की संख्या है। ये सब आत्म-कल्याण के नाम पर या भगवद्भक्ति के सम पर बनाये गये हैं, ऐसा कहा जाता है। पर इन ७० लाख साधुओं में असली साधु कितने होंगे ? मेरे ख्याल से इने-गिने साधु होंगे, जो साधुता की मूर्ति हों; क्योंकि येश पहनने मात्र से या माला फिराने अथवा लोगों को लच्छेदार भाषण सुना देने नान से साधुता नहीं आ जाती। साधुता आती है---ममता छोड़ने से, समता धारण करने से और अहिंसा, सत्य आदि के पालन से तथा क्षमा आदि दस श्रमणधर्मों की साधना से। ऐसा गुणी साधु, सच्चा शिष्य, विनय आदि गुणों से ओत-प्रोत होता ही है। परन्तु साधुता के ये सुसंस्कार गुरुओं से मिलें, तभी ऐसा सुशिष्य तैयार हो सकता है। मुशिष्य कोई आसमान से नहीं टपकते,