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आनन्द प्रवचन भाग ६
माणिक्यपुरी नाम की समृद्ध नगरी के राजा का पुत्र, नगरसेठ का पुत्र और एक गरीव युवक तीनों दिलोजान दोस्त थे। एक द्वार तीनों ने विचार किया कि हम संसार के प्रपंच को छोड़कर किसी विद्वान गुरु के सान्निध्य में जाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करें। तदनुसार वे तीनों घर-बार छोड़कर सिप्तें एक वस्त्र धारण करके घोर अरण्य में रहने वाले एक संन्यासी के पास पहुँचे। मात्मा समाधिस्थ थे। तीनों उनके ध्यान खुलने की प्रतीक्षा में बैठे रहे। काफी समय वे पश्चात् जब महात्मा ने आँखें खोली तो उन तीनों मित्रों को देखा। सर्वप्रथम नगरसेऊ के पुत्र की ओर दृष्टि करके उन्होंने पूछा - " वत्स ! तुम्हारे यहाँ आने का क्या । प्रयोजन है ?" उसने उत्तर दिया-"महात्मन् ! मैं माणिक्यपुरी के नगरसेठ का पुत्र हूं, अगणित द्रव्य और कुटुम्बियों को छोड़कर आपके पास आत्मज्ञान प्राप्त करने वति इच्छा से आया हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य बनाइए । '
उसकी बात सुनकर महात्मा मुस्कराए और वही प्रश्न राजकुमार से पूछा। उसने उत्तर दिया – “महात्मन् ! मैं माणिक्यपुरी वे विजयी राजा का पुत्र हूँ। हीरा, मोती, माणिक्य, दास-दासी, रत्नजटित आभूषण, वैभव-सामग्री एवं कुटुम्ब आदि को छोड़कर आत्मज्ञान के लिए आपके चरणों में आया हूँ।। कृपया मुझे अपना शिष्य बनाइए । "
महात्मा कुछ हँसे, फिर उस गरीब युवक से वही प्रश्न पूछा तो उसने कहा - "प्रभो ! मैं कौन हूँ? वही जानने के लए मैं यहाँ आया हूँ। "
महात्मा आसन से उठे और उस गरीब युवक को छाती से लगाकर कहा - " वत्स ! तुम तीनों में से तुम एक ही आत्मज्ञान के लिए वस्तुततः उत्कण्ठित हो। मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊँगा । "
बन्धुओ ! आत्मज्ञान के पिपासु को देखने-परखने की आँखें होनी चाहिए। वह छिपा नहीं रहता । परीक्षक व्यक्ति की दिव्य आंखों से। परन्तु यह बात अवश्य है कि सम्यगुरुचिसम्पन्न व्यक्ति नहीं होगा तो उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश देने पर वह सफल नहीं होगा, व्यर्थ जाएगा ।
भगवान महावीर को केवलज्ञान होते ही जब उन्होंने प्रथम उपदेश दिया, तब कोई सम्यक रुचिसम्पत्र व्यक्ति न होने से वह निष्फल गया। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान के उपदेश वर्त ग्रहण के लिए सम्यकुरुचिसम्पन्न व्यक्ति का होना कितना आवश्यक है ?
रुचि के तीन प्रकार
रुचि की विभिन्नता को लेकर शास्त्रकारों ने संसार के समस्त जीवों की रुचि को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया है वह पाठ इस प्रकार है
"तिविहा रुई पन्त्रत्ता, तं जहा सम्मरु मिच्छरुई, सम्मामिच्छारुई । "
तीन प्रकार की रुचि कही गई है, का इस प्रकार है— सम्यकुरुचि, मिथ्यारुचि