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________________ ३३८ आनन्द प्रवचन भाग ६ प्रति रुचि ही उपादेय है। ऐसी रुचि ही आध्यात्मिक ज्ञान या नैतिक धार्मिक बोध के योग्य पात्र को नापने का थर्मामीटर है। जिस व्यक्ति में आध्यात्मिक ज्ञान के प्रोति दिलचस्पी, लगन, जिज्ञासा, तीव्रता, उत्कण्ठा, उत्सुकता या परमश्रद्धा होगी, तत्त्वज्ञान के प्रति प्रीति होगी, या सत्य के प्रति दृढ श्रद्धा या प्रतीति होगी वह व्यक्ति हजार : अन्य कार्यों या सांसारिक आकर्षणों को छोड़कर आध्यात्मिक बोध पाने या परमार्थज्ञान का लाभ लेने के लिए आएगा। वह बहानेबाजी नहीं करेगा कि आज तो अमुक आदमी मिलने के लिए आ गया, आज तो अमुक जरूरी काम निपटाना था, आज तो मेरी तबियत ठीक नहीं थी, आज मैं सवेरे से अमुक कार्य में संलग्न था, आज मेरे अमुक सम्बन्धी का वियोग हो गया, आज मेरी अमुक चीज नष्ट हो गई या उसकी चोरी हो गई है आदि। तत्त्वज्ञान का जिज्ञासु या उत्सुक श्रोता जब परिषद् में श्रोता बनकर बैठेगा, तब फिर उसकी रुचि या चित्त का आकर्षण इक्षर-उधर डाँवाडोल नहीं होगा। उसकी प्रतिपादन किये जाने वाले आध्यात्मिक विषय के श्रवण में इतनी तन्मयता हो जाएगी, इतनी लगन और उमंग हो जाएगी कि वह दूसरी ओर जाएगी ही नहीं। उसकी श्रद्धा भी बार-बार उसी परमार्थतत्त्व के श्रवण में होगी, सांसारिक पदार्थों एवं इन्द्रियविषय-भोगों के सम्बन्ध में श्रवण करना उसे जरा भी नहीं सुहाएगा, न उसकी दिलचस्पी या श्रद्धा उस और होगी। कोई किल्ना ही सांसारिक आकर्षणों के प्रति उसे खींचना चाहे, वह उस ओर जरा भी नहीं मुड़ेगा, उसको मोह, क्रोध, लोभादि वैकारिकदोषों से रहित अध्यात्मज्ञान के प्रति निर्मल प्रीति होगी। जिसे हम सम्यकुरुचि कह सकते हैं। ऐसी समयक्रुचि पर जिसे पद्म श्रद्धा होगी, उसकी दृष्टि भी सम्यक् होगी, उसे कदापि आध्यात्मिक तत्त्वों के प्रो कुशंका, फलाकांक्षा, फल में संदेह, मिथ्यारुचि या मिथ्यादृष्टि जनों की ओर झुकाव, उनकी प्रशंसा करने या प्रतिष्ठा देने की वृत्ति, उनसे अधिकाधिक सम्पर्क करके लीक श्रद्धा को विचलित करने की प्रवृत्ति नहीं होगी। ऐसी सम्यकूरुचि जिस व्यक्ति में पैदा हो जाती है, वह अपने धार्मिक या आध्यात्मिक जीवन अपनाने से पूर्व कर्मोदयवशकटों के आ पड़ने पर कदापि शिकायत नहीं करेगा, न वह अपने सम्बन्धियों या किसी निमित्त को, भगवान को या काल आदि को कोसेगा, न ही वह किसी भौतिक रुचि बने लोगों के आडम्बर और चमत्कारों की चकाचौंध में पड़कर वह उस रुचि की ओर लड़केगा, या उस मिध्यारुचि वाले व्यक्ति के दल में प्रविष्ट होगा। वह राजनैतिक लोगों की तरह दलबदलू नहीं होगा। जिसमें ऐसी सम्यकुरुचि जाग गई हैं, वह भौतिक सोच वाले लोगों के द्वारा दिये जाने वाले पद, प्रतिष्ठा या सुख-सुविधाओं के प्रलोभन में नहीं फँसेगा, न वह ऐसे अश्लील, भौतिक आकर्षण या कामोत्तेजक, लालसावछेक, नामना- कामनासम्पोषक साहित्य को पढ़ेगा-लिखेगा, क्योंकि उसकी रुचि ही उस मिथ्याज्ञान की ओर नहीं है। ऐसे सम्यक्रुचि वाले व्यक्ति में ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, छलछिद्र. मोह एवं
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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