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________________ अरुचि वाले को परमार्थ-कवन : विलाप ३३७ उलटते-उलटते एक दिन भटजी को ३२ पुन्नियो की कथा (द्वात्रिंशत् पुत्तलिका) हाथ लगी। उन्होंने मन ही मन कुछ सोचकर निशाय किया -- "बस, ठीक है, यह कथा रसपूर्ण भी है, लोकजिह्वा पर स्थायी भी है, आध्यात्मिक पुट देकर अगर इस कथा को रसिक ढंग से कहा जाय तो जनता की रुचि इस ओर मुड़ जाएगी।" दूसरे दिन पूनम का चाँद खिला। चौराहे पर उजाले में शामता भट बैठे और अपनी बुलंद आवाज में स्वरचित बत्तीस पुतलियों की नई कथा कहने लगे। एक ने सुनकर दूसरे से, दूसरे ने तीसरे से कहा, यों धीरे-धीरे मानवमेदिनी जमने लगी। गाँव में बात फैल गई "भटजी तो गजब की कथा करते हैं, मन होता है, सुनते ही रहें।" रात को बहुत देर तक कथा का दौर चलता। पहले दिन की अधूरी छोड़ी हुई दूसरे दिन आगे चलाते, अब तो आस-पास के गाँवों के लोन भी भटजी की कथा में आने लगे। एक रात को पौ फटते-फटते कथा उठी। भटजी अपने डेरे पर आए, तब भवैयों के टोले को उन्होंने द्वार पर खड़ा देखा। भवैयों के नेता ने कहा---'भटजी ! आपकी यह कथा कितने दिन चलेगी?" भटजी बोले-"भाई ! यह पहली गुतली की कथा हुई है, अभी तो ३१ पुतलियों की कथा और बाकी है। यह तो जनता है, जिधर रुचि होती है, उधर मुड़ जाती है।" यह सुनकर भवैये निराश हो गए। जनता को अब भवैयों के नाटक में रान था। वह अब शामलभट की कथा में आने लगी थी, अतः दूसरे दिन ही भवैये अपना बोरिया-बिस्तर वाँधकर गाँव छोड़कर कब चले गए, किसी को भी पता न लगा। अतः जनता की रुचि अच्छाई की ओर भी मुड़ सकती है, बुराई की ओर भी। शामलभट की तरह यदि उपदेशकबर्ग वर्तमन्त युग की जनता की विपरीत मार्ग पर जाती हुई रुचि को वैज्ञानिक ढंग से आध्यात्मिक विषयों की रसप्रद व्याख्या करके मोड़े तो निःसन्देह वह मुड़ सकती है। परन्तु उपटेशक को यह तो अवश्य जांचना-परखना होगा कि अमुक व्यक्ति में पैसे दो पैसे भर को आध्यात्मिक रुचि जगी है या नहीं ? यदि मूल में एक कणभर भी आध्यात्मिक सम्व नहीं है तो उसकी उन्मार्ग (वैषायिक) रुचि को सहसा मोड़ना दुष्कर है। अगर ऐसी स्थिति हो तो महर्षि गौतम की ऐसी चेतावनी पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि 'अरुचिवान को तत्त्वज्ञान की बाते कहना येकार का प्रलाप है।' सम्यक्रुचि का नापतौल यही कारण है कि यहाँ उन सांसारिक पदार्थों के प्रति रुचियों का तो कोई सवाल ही नहीं है, यहाँ तो आध्यात्मिक ज्ञान, तत्त्वज्ञान, परमार्थ का बोध, निश्चय नय का ज्ञान, निश्चयदृष्टि आदि लोकोत्तर एवं आत्मविकासक, आत्मोन्नतिकारक पदार्थों के
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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