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अरुचि वातको परमार्थ-कवन : विलाप ३३५ परिणाम-विशेष, परमश्रद्धा, तत्त्वार्थों के विषय में तन्मयता, सात्य एवं नैर्मल्य आदि।'
रुचि ही वास्तव में उपदेश या बोध के योग्य पात्रता की पहचान है। जिस व्यक्ति की जिस विषय में रुचि होगी, वह उस विषय को सुनने के लिए उद्यत होगा; चाहे भूख-प्यास लगी हो, नींद आती हो, शरी) में पीड़ा या व्याधि भी हो।
आप कह सकते हैं कि वर्तमान में प्राय: युवकों की रुचि तो चलचित्रों के देखने में, नाचरंग में, ऐश-आराम में अथवा सांसाकि विषयभोगों में है, तब क्या हम उन्हें उपदेश या बोध के पात्र कह सकते हैं ? कदापि नहीं। क्योंकि यहाँ परमार्थबोध या तत्त्वज्ञान-विषयक रुचि का प्रसंग चल रहा है, इसलिए सांसारिक पदार्थों की रुचि यहाँ बिलकुल अभीष्ट नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक जगत में सांसारिक पदार्थों, काम, क्रोध, लोभादि में या विषय-भोगों में रुचि को अरुचि कहा है।
सांसारिक पदार्थों में रुचियाँ अनेक प्रकार की हैं, इसलिए भिन्नरुचिर्हि लोकः (जगत् विभिन्न रुचियों वाला है) कहकर जमत के प्राणियों की रुचियों को समुद्र की लहरों या आकाश के समान अनन्त बताया है और उन्हें पकड़ पाना या उनकी पूर्ति कर पाना असम्भव बताया गया है।
उचि का मोड़ अच्छाई-बुराई दोनों ओर यह सत्य है कि आजकल लोकरुचि गागरंग और नाटक-सिनेमा आदि में अधिक है। इसलिए रुचि तो रुचि है, यह अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं होती, इस पर जिसका रंग चढ़ा दिया जाए, उधर ही यार मुड़ जाती है। एक पाश्चात्य बिचारक रोचीफाउकोल्ड (Rochefoucauld) ने ठीक ही कहा है--
"The virtues and vices are all put in motion by interests." "सद्गुण और दुर्गुण तमाम रुचि के सरा गतिमान किये जाते हैं।"
रुचि को जिधर भी मोड़ दिया जाए, जिस तरफ उसकी नकेल घुमा दी जाए, उसी तरफ वह गति करने लगती है। अगर अच्छाई की ओर मोड़ दिया जाए तो वह उधर मुड़ सकती है और बुराई की ओर मोड़ा जाए तो उधर भी। इसीलिए पश्चिमी विचारक ब्यूमोंट (Beaumont) कहते हैं-- १ (क) रुचिः-उत्कण्ठायाम्
-दे० ना० वर्ग ७, गा० ८ (ख) रुचि:--परमश्रद्धायां, आत्मनः परिणामविशेषरूपे—बृहत्कल्पसूत्र, उ०प्र० (ग) रुचिः-चेतेऽभिप्राये
-सूत्र० ०१ (घ) अभीलाषरूपे
-स्थानांगसूत्र १० (च) प्रीती
-आवश्यक (छ) रुचिः-नैर्मल्ये
--उत्तराध्ययन १ अ० (ज) श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमित्यमेवेति
-द्रव्यसंग्रह टीका (झ) सात्म्यं रुचिः, तत्त्वार्थविषये तन्मोत्यर्थः