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आनन्द प्रवचन : भाग ६
एक सिन्धु-सा शिक्षा ग्राहक, उसमें दोष मिलाता । भली बात को बुरा रूप दे, औों को भरमाता। शिक्षा.... तप्त तवे का साथी, वह जो अपना गानागाता। शिक्षा की प्रत्येक बात का खण्कत करता जाता। शिक्षा.... प्रथम पात्र बन जाता वह जो, उत्तम है कहलाता ।
दूजा मध्यम, शेष अधम की श्रेषो में है आता। शिक्षा....
उपदेश या शिक्षा के प्रति विविध पात्रों को परखने का कितना सुन्दर गुर कवि ने बतला दिया है। सच्चा उपदेशक या परामर्श किस प्रकार दे, काल, पात्र, परिस्थिति और अवसर आदि देखकर चलता है, जहाँ देश, काल या पात्र आदि समुचित नहीं जान पड़ते, वहाँ मौन रहता है, किन्तु व्यर्थ ही सांसारिक वासनाओं या इच्छाओं को श्रोताओ में उभाड़ने की एयल नहीं करता। पाश्चात्य विचारक गाउलबर्न (Goulburn) ने बहुत ही मार्के व्ती बात कह दी है
"Send your audience away with a desire for worldly affairs, and an impuse toward spiritual inrprovement or your preaching will be a failure."
__'ऐ उपदेशको ! अपने श्रोताओं को मांसारिक वासनाओं से दूर हटाओ और आध्यात्मिक-प्रगति की ओर जोर दो, अन्यथा तुम्हारा उपदेश असफल होगा।' अरुचि क्या, रुचि क्या ?
महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र द्वारा जब यह बता दिया कि जो व्यक्ति अरुचिवान है, उसे परमार्थ का बोध कहाला विलाप है, तब यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि जो अरुचिचान है, वह देश या परमार्थ बोध के योग्य पात्र नहीं है।
___ अब प्रश्न यह होता है कि वह अजि क्या है, जिसका स्पर्श पाकर व्यक्ति परमार्थबोध के लायक नहीं रहता ?
इसके लिए सर्वप्रथम रुचि का स्वरूा समझ लेना होगा। रुचि का स्वरूप समझ लेने पर आपको अरुचि का स्वरूप शीघ्र ही ज्ञात हो जाएगा, क्योंकि रुचि से विपरीत ही अरुचि है।
सामान्यतया रुचि का अर्थ दिलचसंगे, उत्कण्ठा, उत्सुकता या अभिलाषा होता है। इसके अतिरिक्त रुचि के ये अर्थ भी जैनशास्त्रों की टीकाओं में मिलते हैं-प्रीति, चित्त का अभिप्राय, दृष्टि, श्रद्धा, प्रतीति, निश्चय, आत्मा का