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________________ ३२८ आनन्द प्रवचन भाग ६ नाम को सार्थक करते थे। वे भी योग्य व्यक्तियों को एकान्त में ही सुनाये समझाए जाते थे। राजस्थान के महाकवि बिहारी ने तीन दोहों में अन्योक्ति द्वारा इस बात को भली-भांति समझाया है कर लै संधि सराहि कै, गंधी अंध गुलाब को सबै रहे गहि मौन । गंवई गाहक कौन ? एक गंधी गुलाब का इत्र लेकर एक गांव में पहुंचा। वहां उसे एक बुद्धिमान मनुष्य मिला, उसने गंधी से कहा- “ अरे भाई ! यहां गांव में तेरे गुलाब के इत्र का ग्राहक कौन होगा ? यहाँ तो तरे इत्र को सूंघ लेंगे, कुछ मुफ्त में लगाकर उसकी सराहना कर देंगे। पर खरीदने के मामले में सह चुप हो जाएंगे।" अरे हंस या नगर में, यो आप विचारि ॥ कागनि सौ जिन प्रीति करि, कोयल दई बिडारि । एक हंस एक नगर में जाने की तैयारी कर रहा था, तभी एक कवि ने उससे कहा - "अरे हंस ! इस नगर में तुम सोच-समझकर जाना, क्योंकि यहाँ के लोग गुण-ग्राहक नहीं हैं। उन्होंने मधुरभाषिणी कोयल को तो मार भगाया है और कर्कशभाषिणी कौच्ची से प्रीति कर रहे हैं। " चले चाहु ह्यां को करत, हाथिन को व्यापार । नहिं जानत या पुर बसत, घोबी ओड कुम्हार । हाथी के व्यापारी से एक चतुर ने कहा - "भाई इस नगर से चले जाओ । यहाँ हाथी का व्यापार करना कोई नहीं जानता। इस नगर में तो धोवी ओड और कुम्हार बसते हैं। " कितनी मार्मिक बात कह दी है व्तवि ने उपदेशक या बक्ता को इन अन्योक्तियों से महती प्रेरणा मिलती है कि के अपना बहुमूल्य तत्त्वज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान या परमार्थ का बोध चाहे जिसके सामने न बधारें, योग्यता और पात्रता देखकर ही वे अपनी ज्ञाननिधि दूसरों को दें। कभी-कभी ऐसे अयोग्य श्रोताओं को कथा सुनाने से वे कुछ का कुछ समझ बैठते हैं। पूरा अर्थ उनके दिमाग में नहीं आता, वे क्क्ता को भी बदनाम कर बैठते हैं। कहते हैं एक बार धर्मग्रन्थों के बड़े-ब गट्ठरों को देखकर भगवान् ने निःस्वास फेंकते हुए कहा - "हाय मेरा उपदेश भूखों और बीमारों के काम न आया। काम तो उनके आ रहा है, जिनका पेशा ही उपदेश ईना हो गया है। जिनकी आजीविका ही उपदेशों के आधार पर चलती है। कुछ वक्त तो इतने भाषण रोगी हो गये हैं कि चे वाणी की सार्थकता इसी में मानते हैं कि बेभान होकर श्रोता के आगे चाहे जितना ही उगल डालें। ऐसे भाषण वीरों को ही दृष्टि में रखकर भगावन महावीर ने कहा था"वायावीरियमेत्तेण समाप्तासेति अप्पयं । " 'बहुत से लोग बाणी की शूरवीरता माह से अपने आप को सन्तुष्ट कर लेते हैं।'
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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