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अरुचि वाले को परमार्थ कथन : विलाप
३२७ हैं। मैं भी यदि महाभारत पहले से सुन लेती और जान लेती कि पांच पति कर लेने पर भी द्रौपदी सती कहलाई तो मैं भी ऐसा सुनहरा मौका क्यों चूकती ?"
सुनने वाले मन ही मन हंस रहे थे। पण्डितजी के तो होश ही गुम थे। इतने में सेठ का पुत्र बोला- “गुरुचर! मैंने भी अगरका महाभारत बहुत ही मनोयोगपूर्वक सुना है। सुनकर यही निर्णय किया है कि मुझे जल्दी से जल्दी अर्जुन बनना है। जो अर्जुन भीष्म जैसे पितामाह, द्रोणाचार्य जैसे गुरु महारथी कर्ण जैसे सहोदर, शल्य जैसे मामा और दुर्योधन जैसे सारे भाइयों को मौत के घाट उतारकर भी भक्तराज कहलाया, तब फिर मैं भक्तराज बनने में पीछे क्यों रहूँ ? पिताजी माताजी को तो अफसोस है, देर से महाभारत सुनने का पर मेरे सामने तो अभी समय है...।"
दूसरे पुत्र ने कहा- भाई की तरह मेरा भी श्रीकृष्ण बनने का विचार है । उन्होंने सहस्त्र महारथियों को छलबल से मार गिराया, फिर भी कर्मयोगी कहलाए । बस, अधिक क्या कहूँ, मेरा तो वैसा ही कुछ बनाने का विचार है...।"
पिता, माता एवं दोनों भाइयों की बात सुनकर पुत्री ने कुन्ती बनने का विचार प्रगट किया।
पण्डितजी अपने श्रोताओं की बात सुनकर माथा ठोककर रह गए। सोचा- श्रोता तो बड़े अच्छे मिले... ।
वस्तुतः उपदेसक या बक्ता पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह उपदेश में बड़ी सावधानी बरते। अन्यथा कभी लेने के देने पड़ सकते हैं। कबीर जी ने तो स्पष्ट कह दिया है
मूरख को समझावतां, ज्ञान्त्र गाँठ को जाय ।
कोयला होई न ऊजरो, नौ मन साबुन लाय ।
मगध सम्राट श्रेणिक को नरक का बन्धन काटने के लिए भगवान महावीर ने ४ उपाय बताये थे, उनमें से एक उपाय यह था कि “अगर तुम्हारे नगर का काल सौकरिक कसाई, जो प्रतिदिन ५०० भैंसों का वध करता है, वध करना बंद कर दे। "
श्रेणिक राजा को आशा थी कि किरण मिल गई। उसने काल सौकरिक को बुलाकर बहुत समझाया, उस पर दण्डशक्ति का दवाब भी डाला, उसे कैद में भी डाल दिया गया, उसके हाथ-पैर बांधकर औंधा में लटकाया गया, ताकि वह जीव हिंसा बन्द कर दे, किन्तु इतना करने के बावजूद भी वह मन से जीववध करने से न रुका। श्रेणिक का उसे समझाना-बुझाना, उपदेश और परामर्श देना व्यर्थ गया, एक प्रकार से अरण्यरोदन ही सिद्ध हुआ। यही हाल कपिला दासी के हाथ से दान दिलाने के सम्बन्ध में हुआ। वह भी कितना ही समझाने पर भी अपने कुसंस्कारों का त्याग न कर सकी। यही कारण है कि प्राचीनकाल में अनधिकारी को उपदेश देना निर्रथक प्रलाप समझा जाता था। मंत्र भी गुप्त रखे जाते थे। आध्यात्मिक ज्ञान के स्त्रोत उपनिषद भी अपने