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अरुचि वालों को परमार्थ कवन : विलाप
३२६ ऐसे ही एक रामायण के कथावाचक भे। सम्पूर्ण रामायण सुना चुकने के बाद जब शंका-समाधान का अवसर आया म्रो चट् से एक श्रोता ने पूछ ही लिया-"महाराज ! आप जैसे कथाकार रिले ही होते हैं। कितने सुन्दर ढंग से
आपने रामचरित सुनाया। आपने सब को समझाने के लिए बहुत ही सरल शब्दों में विवेचन किया, लेकिन एक शंका मेरे दिमाग को कचोट रही है कि आखिर राम और रावण इन दोनों में राक्षस कौन था?"
यह सुनकर तो कथावाचकजी भौंचक्क से रह गए। उन्हें क्या पता कि ऐसे भी अयोग्य श्रोता होते हैं। अतः कथावाचकजी अपने को संयत करते हुए बोले-'आपकी जिज्ञासा का समाधान तो मरी समझ में यही आता है कि राम और रावण दोनों में कोई राक्षस न था। राक्षस तो वास्तव में हम और तुम हैं, क्योंकि तुम ठहरे निरे बुद्धू श्रोता और हम बकवादी कथाकाचक।"
उपदेशक या वक्ता कैसे हो ? वास्तव में ऐसे भाषण रोगी या उदम्भरी कथावाचक श्रोताओं की योग्यता-अयोग्यता की परवाह नहीं करते हैं। उन्हें तो अपने पेशे से मतलब है। अथवा ऐसे उपदेशक या वक्ता भी कोई परवाह नहीं करते, जो अपनी वक्तृत्वकला के जादू द्वारा लोगों को रिझाकर या लोगों को प्रभावित करके प्रसिद्ध वक्ता आदि पद, प्रतिष्ठा या वाहबाही प्राप्त करना चाहते हैं। पाश्चात्य विचारक सेल्डन (Seldon) ने इसी बातकी ओर संकेत किया है
"First, in your sermons, Luse your logic and then your rhetoric. Rhetoric without logic is like a tree with leaves and blossoms, but not root."
"ऐ उपदेशको ! आप अपने उपदेशों में सर्वप्रथम युक्ति और तर्क का प्रयोग करें, तदन्तर अपनी भाषणा कला दिखाएं। बेना तर्क की भाषण कला ऐसी ही होगी जैसे बिना जड़ के केवल पत्तों और फूलों से नदा वृक्ष ।" सूत्रकृतांगसूत्र में धर्मोपदेशक की योग्यता के विषय में कहा गया है
आयगुत्ते सयादंते छन्नसोए अणासवे ।
ते घमें सुद्धमाइक्वेही पडिपुण्णमणेलिसं । "जो प्रतिक्षण अपनी आत्मा की रक्षा (पापों एवं बुराइयों से) करते हैं, सदा दान्त हैं, जिन्होंने पापों के स्त्रोतों को काट दिया है, जो आस्त्रव-रहित हैं, वे ही शुद्ध परिपूर्ण अतुलनीय धर्म का उपदेश दे सकते हैं।" ।
इसके अतिरिक्त जिस वक्ता की दूसरों के दोष देखने, दूसरों को नीचा दिखाने या कठोर मर्मस्पर्शी अपशब्द कहने की वृत्ति न हो, जिसकी वाणी में मधुरता, सरसता हो, जिसकी दृष्टि अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद से ओत-प्रोत हो, किसी पर कटाक्ष या पक्षपात