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________________ ३२२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ रानियों का रवैया देखा तो उसने गुप्तरूप से यह बात अपनी प्रिय स्वामिनी सोभारानी के कानों में पहुंचा दी। सोमारानी के मन में अफ्नो ४६६ सौतों के प्रति घृणा भाव तो था ही, अब और बढ़ गया। उसने मन ही मन यक्ति सोच ली और उनका सफाया कराने की ठान ली। ज्यों ही राजा सिंहसेन उसके शयनकक्ष में प्रविष्ट हुए, सोमारानी को उदास और गुम-सुम बैठी देख उन्होंने उससे ऐसा होने का कारण पूछा। सोमारानी ने त्रिया चरित्र करते हुए कहा--"प्राणनाथ ! मैं आज इस वेिचार से कम्पित हो उठी कि अगर कोई आपको मेरे से छीन ले तो फिर मेरा और को नहीं है।" मोहमूढ सिंहसेन ने गर्व से कहा- 'जिसकी ताकत है, जो मुझे तुझसे छीन ले।' तीर निशने पर लगता देख सोमारानी ने आँसू बहाते हुए कहा-"प्राणनाथ ! मुझे विश्वस्त सूत्र से ज्ञात हुआ है कि मेरी १६६ सौतें मेरा अनिष्ट करने की फिराक में हैं। उस समय मेरा क्या होगा ? इस विचार से ही मैं काँप उठती हूं। नाथ ! मैं अकेली और वे तो ४६६ हैं। मुझे तो वे एक कोने में धकेलकर चटनी बना सकती हैं। हाय नाथ ! मुझे बचाइए।" सिंहसेन ने उसे निर्भय करते हुए कहा-'"प्रिये ! ऐसी चिन्ता न करो। किस की मजाल है, जो तुम्हारा बाल भी बाँका का सके। तुम यह क्यों भूल जाती हो कि मैं अकेला ही इन सब स्त्रियों का कत्न कराने कर सामर्थ्य रखता हूं।" सोमारानी ने जलते हुए हृदय से कात्र--"परन्तु प्राणनाथ ! ऐसा करना बहुत कठिन है। उनके पीहर का पक्ष भी तो बहुत प्रबल है, वह आप पर आफत ला सकता "अरी ! ये स्त्रियाँ तो ठीक, परन्तु इनके पीहर के सभी व्यक्तियों का भी मैं तेरे प्रेम के लिए कचूमर निकाल सकता हूँ, फिर तुझे क्या चिन्ता है ?" राजा ने कहा। सोभारानी--"पर नाथ ! यह कार्य बहुत ही भागीरथ है। यह कार्य आसानी से थोड़े ही हो सकता है ?" सिंहसेन-"क्यों नहीं हो सकता ? तेरे प्रेम के लिए आकाश के तारे तोड़कर लाने की भी शक्ति मुझमें है, समझी ?" सोमारानी-"यह समझ में कैसे आए ? अत्यन्त दुष्कर कार्य है यह ! आप कुछ कर बताएँ तो जानूं | कहना आसान , पर करके बताना कठिन है। नाथ ! मुझे तो इन ४६६ सौतों को उनके पितृपक्ष के लोगों सहित समाप्त करना असम्भव सा प्रतीत होता है।" "अच्छा, यह बात है ? देखना, बन्दा क्या करता है ?' यों कहता हुआ सिंहसेन उसी समय वहाँ से चल दिया। अहंकार और मोह के आवेश में किीकमूढ़ बना हुआ राजा सिंहसेन मन ही मन यक्ति सोचकर एक विशाल लाक्षागृह का निर्माण कराने लगा। जब लाक्षागृह बन कर
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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