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________________ बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३१७ अपराध का दण्ड मालिक को भोगना होगा।'' गृहस्वामिनी बोली----''भले आदमी ! अभी तो यह भैंस खरीदकर ही कहाँ लाया है ? फिर तुम कैसे झूठी बात बना रहे हो कि तुम्हारी भैंस मेरा खेत चर गई ?" पड़ोसी ने कहा- "जब बिना खरीदे मैंस मेरा खेत नही चर सकती, तो बिना भैंस लाये मक्खन-मलाई कहाँ से दे दी गई ? और तुम दोनों क्यों गुस्से में तमतमाकर लड़ने लगे ?" पड़ौसी की तथ्यपूर्ण बातें सुनकर पति-पत्नी दोनों अपनी मूर्खता पर लञ्जित हो गये। हाँ, तो ऐसी मूर्खताएँ क्रोधावेश की देन हैं। द्वेष और वैर से कुपित होने पर द्वेष और वैर का प्रकोप भी क्रोध कि प्रकोप से सम्बन्धित है। अन्य बुरी परिस्थितियां तो थोड़ी देर ठहरकर अपना कुप्रभाव दिखाकर विदा हो जाती है, पर द्वेष और वैर का प्रकोप काफी लम्बे अर्से तक चलता है। कई बार तो मन में ऐसी जड़ जमाकर बैठ जाता है, निरन्तर कांटे की तरह खटकता रहता है। इन दोनों के प्रकोप में ऐसी खराबी है कि उनके कारण प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की भावना पैदा हो जाती है, जिसके साथ द्वेष और वैर होता है, उसे लोई न कोई हानि पहुंचाने को जी चाहता है और जी की जलन तब तक शान्त नहीं होती, जब तक बदला नहीं ले लिया जाता। वैर का बदला प्रतिपक्षी के मन में ठीक वैसी ही प्रतिहिंसा की भावना पैदा करता है। इस प्रकार वैर की प्रतिक्रिया का कुचक्र दोनों पक्षों में चिरकाल तक और कभी तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक चलता है। कभी-कभी सांपठित रूप पार्टीबंदी के रूप में उठ खड़ा होता है। हत्या, कल्ल, डकैती, लूट, अपारण, चोरी, छुरेबाजी, फौजदारी आदि घटनाएं केवल धन के लालच से नहीं, अपितु उनमें से अधिकांश तो पुरानी अदावत के कारण या वैर-द्वेष के प्रतिशोध के रूप में होते हैं। सर्प जैसा तुच्छ जीव क्रोधावेश में इतना उग्र हो जाता है कि छेड़ने वाले की जान लिए बिना सन्तुष्ट नहीं होता। द्रौपदी के जरा सं व्यंग से क्षुब्ध होकर दुर्योधन इतना क्रूर और असंतुलित हो गया कि उसने पाण्डवों से बदला लेने के लिए महाभारत जैमि भयंकर युद्ध को स्वीकार कर लिया । चम्बल घाटी के दुर्दान्त दस्यु लाखों मनुष्यों का नागरिक जीवन अस्त-व्यस्त करने में क्यों लगे? इन डाकुओं का प्रारम्भिक जीवन केसी साधारण बात से उत्पन्न आवेश के कारण द्वेष और प्रतिशोध से प्रारम्भ हुआ है। जो आगे तक समाज को भारी क्षति पहुँचा रहा है। द्वेष और वैर से कुपित हो जाने पर भीमनुष्य चिरकाल तक बुद्धिभ्रष्ट हो जाता
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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