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________________ ३१८ आनन्द प्रवचन भाग ६ कुपित नहीं होता वही बुद्धिमान पुरुष है! इन सब बातों से यह सिद्ध हो जाता है कि जो केवल शिक्षित होता है, वह बुद्धिमान नहीं, किन्तु जो कुपित नहीं होता, क्रोध, द्वेष, आवेश आदि के प्रसंग पर अपना संतुलन नहीं खोता, वही बुद्धिमान है, कही उत्तम पुरुष है, विद्वान है। भारतीय संस्कृति के एक मनीषी का कथन है— यश्च नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपुरुषः । क्रोधमूलो विनाशो हि राजानामिह दृश्यते । जनता के विनाश का मूल प्रायः क्रोधही दिखाई देता है। इसलिए जो प्रतिदिन क्रोध को जीत लेता है, वही विद्वान है और उत्तम पुरुष है। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व० लाल बहादुर शास्त्री ऐसे ही क्षमाशील पुरुष थे। वे क्रोध के प्रसंगों को मुस्कराकर टाल देते थे। एक दिन शास्त्रीजी संसद भवन से लौटे !! देखा तो उनके अपने कमरे में कूड़ा पड़ा था। घर के बच्चे यह बिखेर गये थे, सामाना भी कुछ अस्त-व्यस्त था । ललिता जी रसोई में व्यस्त थीं। कोई और सामान्य व्यक्ति होता तो इस बात पर बहुत बिगड़ता । एक प्रधानमंत्री के बैठने का कमरा कुछ देर ही सही, गंदा रहे, यह बड़ी ही अनुचित एवं अशोभनीय बात थी। बड़े से बड़ा कोई भी व्यक्ति चाहे जब आ सकता था वहाँ । पर शास्त्रीजी इस भूल के लिए न तो नौकरों पर कुपित हुए और न ललिताजी पर । उन्होंने अपनी बुद्धि का सन्तुलन जरा भी न खीया और अपने ही हाथ से झाडू लगाने लगे । ललिता जी जब बाहर आई तो उन्हें यह देखकर बड़ी ग्लानि हुई । वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य का जीवनक्रम और संसार का क्रियाकलाप कुछे ऐसे ढंग का है कि इसमें हर बात अपनी इचशनुकूल नहीं हो सकती। हम चाहते हैं, वैसे ही दूसरे करें, वे भी हमारी इच्छानुसार अपने स्वभाव और संस्कार को एकदम बदल दें, यह आशा करना अनुचित है। अत: उचित यही है कि आप अपना स्वभाव या दिमाग संतुलित रखना सीखें। यदि किसी का व्यवहार अप्रिय है तो तलाश करें कि उसमें उसका कितना दोष था। कई बार परिस्थितियाँ, मजबूरियाँ एवं वस्तुस्थिति समझने की भूल के कारण लोग सहसा कुपित हो उठते हैं। वे बाद में तो पछताते हैं पर समय पर उन्हें यह सूझ आती ही नहीं । मनुष्य जहां श्रेष्ठ बुद्धि का धनी है, वहां वह त्रुटियों और दुर्बलताओं से भी भरा हैं। पूर्ण निर्दोष, परम सज्जन एवं निर्भ्रान्त व्यक्ति तो वीतराग के सिवाय कोई नहीं होता। इस वास्तविकता को समझकर संसार में रहना है, वहाँ तक कामचलाऊ समझौते की नीति अपनानी चाहिए। जिनका व्यवहार आपको अप्रिय और अशिष्ट लगता हो, उनसे प्रेम और शान्तिपूर्वक वस्तुस्थिति पूछनी चाहिए और जो कारण रहा हो उसकी
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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