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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २८६ शोषण आदि प्रवृत्तियों पर प्रतिबन्ध लगाना होगा। ज्यों-ज्यों व्यवसायी अपने व्यवसाय क्षेत्र में निष्कलंक व्यवसाय का सुन्दर रूप प्रस्तुत करता जाएगा, त्यों-त्यों वह अपने व्यवसायिक क्षेत्र में उन्नत बनता जाएगा, उसका भय, आशंका और संशय दूर होता चला जाएगा और आत्मिक-सुख भी मिलेगा, बशर्ते कि वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र में या अन्य परिवारादि के साथ, या अन्य व्यवसायियों के प्रति संकीर्ण स्वार्थसिद्धि से बिलकुल दूर रहे। इस प्रकार उसका संर्ववर्ण परमार्थ रूप बनता जाएगा। व्यवसाय क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले संकीर्ण स्वार्थ को मैं एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर दूँ । एक था माली और एक था कुम्हार। दोनों दो प्रकार के व्यवसायी होते हुए भी उनमें मैत्री हो गई थी। उनकी मैत्री का आधार कोई उदात्तभाव नहीं था, न हार्दिक था, केवल स्वार्थी का समझौता था। एक दिन वे दोनों अपने गांव से शहर में अपना-अपना माल बेचने जा रहे थे। दोनों के पास एक ऊँट था, जिस पर माली की साग-सब्जी और कुम्हार के घड़े लदे हुए थे। माली के हाथ में नकेल थी, जिसे पकड़े बह आगे-आगे चल रहा था, और कुम्हार ऊँट के पीछे-पीछे चल रहा था। रास्ते में ऊंट पीछे मुड़कर माली की साग-सब्जी खाने लगा। कुम्हार ने इसे देखा मगर यह सोचकर कि इसमें मेरा क्या बिगड़ता है, कुछ बोला नहीं। माली ने पीछे मुड़कर देखा नहीं, इस कारण ऊंट बार-बार सब्जी खाने लगा। घड़ों के चारों ओर सब्जी बंधी हुई थी। सब्जी का भार कम होते ही संतुलन बिगड़ गया। सब घड़े नीचे गिर पड़े और फूट गये। कुम्हार ने अपने स्वार्थ के लिए माली के स्वार्थ की उपेक्षा की, फलतः माली का स्वार्थ भी नष्ट हो गया। इस प्रकार जहां एक व्यवसायी दूसरे से स्वार्थों की उपेक्षा कर देता है, केवल अपना ही स्वार्थ देखता है, वहाँ उसकी भावना चाहे जितनी उदात्त हो, वह परमार्थ नहीं, संकुचित स्वार्थ ही कहलाएगा। डाक्टर और वकील के व्यवसाय स्वार्थ के मामले में आज बहुत आगे बढ़े हुए हैं । प्रायः डाक्टरों के विषय में यह शिकाका सुनी जाती है कि वे इतने हृदयहीन एवं संकीर्ण स्वार्थ से ओतप्रोत होते हैं कि रोगी चाहे मरण-शय्या पर पड़ा हो, अत्यन्त लाचार हो, निर्धन हो, अथवा घर में कोई भी कमाने वाला न हो, फिर भी उन्हें अपनी फीस से मतलब रहता है। रोगी स्वस्थ हो या अस्वस्थ रहे इससे उन्हें प्रायः कोई मतलब नहीं। कई दफा तो निर्धन एवं असमर्थ रोगियों को देखने वे जाते ही नहीं, इन्कार कर देते हैं, समय नहीं है का बहान बना लेते हैं। यह ऐसे चिकित्सकों के संकीर्ण एवं तुच्छ स्वार्थी मनोवृत्ति का परिचायक है। डाक्टरों की इसी संकीर्ण स्वार्थी मनोवृत्ति को एक साधक इन शब्दों में व्यक्त करते हैं--- डाग देके गया टर, अपनी फीस पाकेट में घर । तू जी चाहे मर, हम तो चले अपने घर । उसको कहते डाक्टर ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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