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आनन्द प्रवचन भाग ६
भावार्थ स्पष्ट है आप सब जानते हैं कि ऐस स्वार्थी डाक्टर. जो केवल इंजेक्शन देकर या केवल रोगी को देखकर दरक जाते हैं, रोगी की फिर कोई सुध नहीं लेते, जिन्हें केवल अपनी फीस मिलने के स्वार्थ से वास्ता है, वे हृदयहीन डाक्टर कैसे परमार्थ-पथ की उदात्त पगडंडियाँ पकड़ सकते हैं ।।
यही बात वकील के व्यवसाय के सम्बन्ग में समझिए। अगर वकील अपने मुवक्किल से रुपये ऐंठने के लिए ही उसका मुकदमा लेता है। और कोई राष्ट्र एवं समाज के हित की बात उसके दिल-दिमाग में नहीं है तो वह भी एक नंबर का स्वार्थी वकील है। वह भी परमार्थ के मार्ग से अभी कोसों दूर है।
नौकरी के विषय में भी यही बात है कि नौकरी चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, उसके साथ जब तक संकीर्ण स्वार्थ का भाव रहेोग, तब तक वह नौकर स्वार्थी नौकर ही कहलाएगा, क्योंकि उस नौकर की दृष्टि केवल वेतन मिलने पर है, मालिक का कार्य पूरी वफादारी, सच्चाई और प्रामाणिकता के साथ सम्पन्न करूं, जिम्मेवारी का कार्य करने में जी न चुराऊँ, पूरे समय तक व्यवस्थित एवं शुद्ध ढंग से कार्य करूँ, जिससे मेरे मालिक के लाभ के साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी लाभ हो, उनकी समृद्धि बढ़े। मालिक की सेवा के साथ-साथ यह समाज एवं राष्ट्र की भी सेवा है। इस प्रकार संकीर्ण, हीन एवं निम्न स्वार्थभावों को छोड़कर, या केकत अपने वेतन की प्राप्ति का संकीर्ण दृष्टिकोण छोड़कर ज्यों ही नौकरी करने वाला इक उच्च भावों को अपनाता है, त्यों ही दीनता - हीनता के भाव या संकीर्ण स्वार्थभाव पलायित हो जाएंगे और उसका वह स्वार्थपरक कार्य भी परमार्थपरक बनकर अधिकाधिक संतोष, सुख-शान्ति और उत्साह देने वाला बन जाएगा।
इन दो कोटि के व्यक्तियों को मनोवृत्तियों का विश्लेषण मैंने आपके समक्ष किया। इनमें से प्रथम परमस्वार्थी, परमार्थी है, दूसरा स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ को साधने वाला। अब दो कोटि के व्यक्ति और रहे। एक है—दूसरे के स्वार्थ का विघटन करके अपना स्वार्थ साधने वाला और दूसरा है दूसरों के स्वार्थ का विघटन करने के लिए अपने स्वार्थ का भी विघटन करने वाला।
इन दो कोटि के व्यक्तियों की स्वार्थ की मर्यादाओं का विश्लेषण करने से पहले मैं एक बात और स्पष्ट कर दूं ।
आज लोकव्यवहार में यह बात प्रचलित कि एक दुकानदार अपने ग्राहकों से उचित से अधिक मुनाफा लेना चाहता है या लेकमार्केट अथवा करचोरी करके माल बेचना चाहता है, अथवा वह अपने माल में मिलावट करके बेचना चाहता है, उससे पूछा जाए कि वह ऐसा अतिस्वार्थी क्यों बनता है? इस पर वह प्रायः तपाक से उत्तर देता है---"क्या करूँ, परिवार का खर्च ही नहीं चलता. लड़कियों की शादियाँ करनी