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________________ २८८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ इसके साथ उच्च भावनाओं का समावेश कर दिया जाए तो इसी स्वार्थ के माथ परमाथ का भी लाभ मिल सकता है। जैसे एक किसान खेती करता है, वह सोजता है कि इसमे जो उपज हागा, उससे अपने और परिवार का गुजारा चलेगा. जीवन को अन्य आवश्यक सामग्री की प्राप्ति हो जाएगी। साथ ही अगर वह इस प्रकार भी सोचता है कि खेती करना मेग पुनात कर्तव्य है, इससे राष्ट्र, समाज एवं प्राणियों को अन्न मिलेगा, मेरे परिवार के गुजारे मे बचा हुआ अन्न में समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए उचित मूलय पर दे सकूँगा, इससे मुझे जो लाभ होगा, उससे मैं संसार के एक अंग्रा परिवार का पालन करूँगा, यधों को पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बना सकूँगा, जिसमें समाज और राष्ट्र का कुछ हित कर सकें तथा अपनी आत्मा का उद्धार कर सकें। ऐसी उदार भावना जागते ही किमान का अपनी खेती का मूल स्वार्थ परमार्थ में परिणत हो सकेगा, बशर्ते कि वह किसान किसी अन्य व्यवसाय वाले के हित को नष्ट न करें, उसकी दृष्टि केवल अनाज के ऊंचे दाम मिलने पर न हो, वह जनता को ठगने की दृष्टि से अपनी कृषि से उत्पन्न वस्तु में मिलावट न करे, सरकार या जनता के साथ धोखेबाजी न करे, परिवार में भी किसी के या अन्य परिवार, समाज या गट के हित की उपेक्षा करके सिर्फ अपने या अपने परिवार कि हित को ही सर्वोपरि प्रधानता न दे। परन्तु एक बात निश्चित है कि ऐसे परमार्थभायुक्त स्वार्थ से खेती करने वाले कृषक को उसका आनन्द उसकी अपेक्षा स्थायी उदात और अधिक प्राप्त होगा, जो उसे संकीर्ण स्वार्थ रखने पर होता। विचारों की व्यापकता, उदात्तता और उच्चता ही मनुष्य के कार्यों को उच्च बना देती है। खेती जैसे कार में भी परहित की परमार्थ भावना का समावेश हो जाये तो मनुष्य स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ का पुण्य भी उपार्जन कर सकता है, जो उसे सन्तोष, आनन्द एवं सुख शान्ति का लाभ देगा। इसी प्रकार व्यवसाय की बात है। व्यापार के अतिरिक्त डॉक्टरी, वैद्यक, वकालत आदि भी एक प्रकार के व्यवसाय है। अन्य कोई भी शिल्प, कला, हुनर आदि करके पैसा कमाना भी व्यवसाय है। व्यासाय का उद्देश्य अपने पारिश्रमिक या उचित लाभ और उससे अपने व परिवार के पालन-पोषण एवं संस्कार प्रदान के अतिरिक्त यह उद्दात्त एवं उच्च भाव भी हो कि मेरे इस व्यवसाय से जनता की आवश्यकता पूर्ति हो, समाज तथा राष्ट्र की स्या हो, जिन लोगों को जो वस्तुएं या सेवाएं जहां उपलब्ध न हों, उन लोगों को यहाँ उन वस्तुओं या सेवाओं को उपलब्ध करूं, लोगों के कष्ट दूर हों। राष्ट्र और समाज में सम्पत्ति, स्मृद्धि बढ़े, बहुत-से आदमियों को काम मिन्ने । व्यक्तिगत व्यवसाय को इस प्रदतार मार्वजनिक सेवाकार्य मानकर चलने पर स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ भी सिद्ध हो पाएगा। परन्तु व्यवसाय के साथ ऐसी उच्च भावना के जुड़ते ही उस व्यवसायी को अपने व्यवसाय में मुनाफाखोरी, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, चोरवाजारी, तस्कर व्यापार तथा मिलावट, देईमानी, जालसाजी, धोखेबाजी,
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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