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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २८७ आत्मविकास को जो स्वार्थ मानते है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि सदाशयतपूर्ण स्वार्थ भी परनाथ ही होता है। अपनी आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होगा, उन्हीं के माध्यम से संसार का हित दाधन होगा। जिन गुणों एवं उपायों से माधु-संन्यासी आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष एवं आत्मकल्याण प्राप्त करते हैं, उन्हीं गणों और उपायों के विषय में वे दूसरों को बताएंगे। एमा उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ का ही एक रूप माना गया है। अतः साधु-सन्तों द्वारा किये जाने वाले आत्मोद्धार को स्वार्थ मानना उचित नहीं। हाँ, ऐसे साधु-संत, जो परमार्थ पथ का अवलम्बन लेकर संसार से धन बटोरते हैं, अपनी पूजा-प्रतिष्ठा करवाते हैं, लोगों बत भांग, गांजा, अफीम, शराब या अन्य कुव्यसनों या बुराइयों के चक्कर में डालकर एमराह करते हैं, अपने इन्द्रिय-विषयों का आसक्तिपूर्ण पोषण करते हैं, मौज-शौक करते हैं, वे परमार्थी नहीं, अतिस्वार्थी हैं, अथवा वे लोग जो समाज से आहार-पानी वा-पात्र, मकान, पुस्तक तथा अन्य साधु के योग्य कल्पनीय सामग्री या सुविधाएं तो लेते रहते हैं, परन्तु देने के नाम पर समाज से किनाराकशी कर लेते हैं, उपदेश, प्रेरणा या मार्गदर्शन देने से इन्कार करते है , अथवा समाज को या किसी व्यक्ति को गुमराह होगी या उत्पथ पर जाते देखकर भी आंख मिचौनी करते हैं, वे भी एक अर्थ में स्वार्थी हैं। उनकी दृष्टि केवल अपनी ही सुख-सुविधा पर है। हां, वे समाज में अपनी उचित सुख-सुविधा लेना छोड़ दें, जिनकल्पी साधना करने लगे, तब तो वे परमार्थी कहे जा सकते हैं। ___ आइए, इससे एक कदम और आगे रोढ़िए | एक दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य का सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही माना जाता है। की कार्य जितना उदात्त, उज्जवल और उन या विशाल स्वार्थ को लेकर किया जाता है, इसका अन्तर्भाव भी एक प्रकार से परमार्थ में ही हो जाता है। प्रश्न हो सकता है, ऐसा स्वार्थ, जिससे अपना, अपने परिवार आदि का भी हित सधे और समाज, राष्ट्र एवं विश्व का भी, क्या उससे परमार्थ भी साधा जा सकता है ? भारतीय संस्कृति के तेजस्वी विचारकों ने इस पर बहुत गहराई के साथ विचार किया है और उनका यह दावा है कि चारों वर्गों के जी-जो कर्तव्य-कर्म नियत हैं, उन्हे अगर वे ममग्र समाज, राष्ट्र एवं विश्व के हित की दृष्टि से करते हैं तो स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ भी साधा जा सकता है। परन्तु जहां एक व्यक्ति का 'स्व' दूसरे व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र से टकराए, दूसरे को छिन्न-भिन्न करके या दूसरे का अहित या नुकसान करके व्यक्ति अपने स्व को पनपान । चाहे, अपना मनोरथ सिद्ध करना चाहे, वहां निपट संकुचित एवं मूढ़ स्वार्थ होता है, वहां की धृत्ति जरा भी नहीं होती। या तो देखा जाए तो खेती, व्यवसाय, नीकरी करना, शासन चलाना, समाज को नतिक प्रेरणाएं देना, अथवा विविध उद्योग-धंड करना भी मूलतः स्वार्थ है। परन्तु यदि
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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