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________________ २७८ आनन्द प्रवचन भाग ६ राजस्थान में एक कहावत है— काम सर्पा दुःख बीसर्या, वैरी हूग्या वैद। इसका तात्पर्य यह है कि अपना काम निकलते ही रोगी अपने अतीत के दुख और दुख में वैद्य द्वारा किया गये इलाज को भूल जाता है, इतका ही नहीं, अब वैद्य उसका शत्रु भी हो जाता है। इसी स्वार्थी मनोवृत्ति का चित्रण वृनष्कवि ने एक दोहे में किया है— स्वारथ के सब ही सगे, विन स्वारथ कोऊ नाहिं । जैसे पंछी सरस तर, निम्स भये उड़ जाहिं । सच है, स्वार्थ होता है, तब सभी लोग हाँ जी हाँ जी कहकर, मधुर-मधुर बोलते हैं, उस व्यक्ति की खूब प्रशंसा की हैं, चापलूसी करते हैं, उसे दानवीर, धर्मात्मा, पुण्यवान और प्रतिष्ठित श्रेष्ठ पुरुष काकर बखानते हैं, उसके कार्य-कलापों की सराहना करते हैं, उसे उच्च पद एवं अभिनान पत्र देते हैं, लेकिन जब उसके पास किसी कारणवश धन नहीं रहता, वह उन स्वार्थियों को देने लायक स्थिति में नही रहता, जब उसके दुख के दिन आते हैं और रूह दुर्दैवग्रस्त हो जाता है, तब उसे छोड़ने में, दुरदुराने और दुत्कारने में जरा भी देर नहीं करते। कवि के शब्दों में एक भूतपूर्व धनसम्पन्न, किन्तु वर्तमान में दरिद्र की आपबीत्रो सुनिये हैं बनी-बनी के सब साथी, जिंगड़ी में हमारा कोई नहीं । धनवालों के हमदर्द सभी निम्न का सहारा कोई नहीं । ये दोस्त हमारे दुनियां में जब पास बहुत-सा पैसा था । जब वक्त गरीबी का आया, दिलदार दुलारा कोई नहीं । हमदर्द हजारों बन जाते, जब तक पैसे की ताकत है। समय बुरा आ जाता है तब बनता प्यारा कोई नहीं । कितना मार्मिक चित्रण है, स्वार्थी मानव की मनोवृत्ति का । वास्तव में मनुष्य ही क्या, पशु-पक्षी भी उस वृक्ष, सरोवर या आश्रयस्थल को छोड़ते जरा भी देर नही लगाते, जिस पर वे रात दिन बसेरा करते थे, जहाँ वे घोंसला बनाकर अपने बच्चों को पालते-पोसते थे, उन्हें चुग्गा-पानी लाकर देते थे, जहाँ के फल खाये थे, या मधुर जल का पान किया था। एक कवि ने इसी बात को विभिन्न रूपकों द्वारा समझाते हुए कहता है पराहीं । जाहीं । फलहीन महीरूह त्यागि पखेरू, वनानल तें मृग दूरि रसहीन प्रसूनहिं त्यागि करें अलि, शुष्क सरोवर हंस न पुरुष निरद्रव्य तजै गनिका, न अमात्य रहे, बिगरे नृप शिव सम्पत्ति रीति यही जग की, जिन स्वास्थ प्रीति करै कोऊ नाहीं । पाहीं । वास्तव में मनुष्य को जब मूढ या मिथ्यास्वार्थ का नशा चढ़ जाता है, तब वह अपने आपे में नहीं रहता, वह अपने पर ये हुए सभी उपकारों को भूल जाता है,
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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