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________________ २७६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कहते हैं। जयशील गति उसी की हो सकती है, जो इन्द्रियों और मन का गुलाम न बनकर सदैव उन पर विजयी बनकर रहता हो। विजयी की गति में और पराजित की गति में बहुत अन्तर होता है। निर्भयता और निश्चिन्तता के साथ वही साधक गति कर रहा है, जो विघ्न-बाधाओं से हार न खाता हो, संकटों से पराजित न होता हो, पबिह-सेना से सदा जूझता हो, आत्मा के कामक्रोधादि शत्रुओं से सदैव संघर्ष करता कसा हो, पापकर्मों को सदैव पछाड़ देता हो। जो दुर्बल मनोवृत्ति का साधक होता है शह इन संकटों और बाधाओं को देखते ही हार खा जाता है, परिषहों के सामने हथियाण डाल देता है, काम-क्रोधादि रिपुओं के साथ संघर्ष में हमेशा पराजित हो जाता है, पाफार्म उसके मनोबल को सदैव चुनौती देते रहते हैं। वह जीवन संग्राम में जयनशील नहीं रहता। जीवन संग्राम में सदैव विजयी बनकर आगे बढ़ने के लिए एक साधक प्रभु से प्रार्थना करता है बढ़ने का बल दे दो, चाहे! पथ आसान न हो। विनों बाधाओं के सागर, उमड़ पड़ें चाहे मेरे पर। सबको पल में करूँ पराजित, विजयी का बल दे दो चाहे जय पर, अभिमान न हो। बढ़ने... नियमों पर होऊँ न्यौछावर, प्राणों का हो मोह न तिल भर । वीरों का सा साहस रखकर, मरने का बल दे दो। उसमें भय का, अभिमान न हो। बढ़ने... मानवता से ऊपर उठकर, बनूँ सभी का स्वार्थ छोड़कर । परम अर्थ में लीन रहूँ मैं, परमार्थी बल दे दो। चाहे तन का, सम्मान न हो। बढ़ने.... कवि ने जयनशील साधक की भावोगियों को यथार्थता के धरातल पर अंकित कर दिया है। वास्तव में जयी साधक सदैव आध्यात्मिक विजय का संगीत गाता है, उसी धुन में गति-प्रगति करता है। बन्धुओं ! मैं यतना के ६ अर्थों पर सांगोपांग प्रकाश डाल चुका हूँ। यतनावान या यत्नवान साधक में इन छहों रूपों में मतना अठखेलियाँ करती रहती हैं। ऐसे यलबान साधक के समीप पाप-ताप नहीं आते। इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा ___ "चयंति पावाइंगुणिं जयंत" आप इन सभी अर्थों पर गहराई से विचार करके 'यतना' को जीवन में उतारने का प्रयल करें, तभी आपका मुख मोक्ष ध्रुव जी ओर स्थिर रह सकेगा।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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