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________________ यत्त्वान मुनि को तजते पाप : ३ २७५ "इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप प्रयत्नपरो यतिः इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके जो शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रयत्नशील हो, उसे यति कहते हैं। यति और यतना दोनों यम धातु से बने हैं। इसलिए यतना का पाँचवां अर्थ है-प्रयत्नशीलता या पुरुषार्थ प्रयत्नशीलता साधक की किस दशा मे हो ? यह प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि साधक सदैव सतत स पर कल्याणा साधना में आत्मस्वरूप में या लक्ष्य के प्रति अथवा स्मयग्दर्शन रत्नत्रय में पुरुषार्थ करता ही है। मगर जो साधक अयतनाशील होकर अकर्मण्य, आलसी या आगराक्रमी हो जाते हैं, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। लक्ष्य के प्रति जो पुरुषार्थ नही करता, आत्मस्वरूप में प्रयत्न नहीं करता, वह पाप प्रवृत्ति में पड़ेगा और उस पाप कर्म के फलस्वरूप नाना दुःख पूर्णगतियों और योनियों में जन्म-मरण करता रहता है। अतः पापकर्मों से विरत होने के लिए आवश्यक है कि साधक अपने आत्मस्वरूप, रत्नत्रय या ध्येय की दिशा में प्रयत्नशील हो । जब वह आत्मस्वरूप में या धन्य की दिशा में सतत् प्रयत्नशील रहेगा तो वह सारे संसार को आत्मौपम्य दृष्टि से देखेगा, प्राणिमात्र को मित्र समझेगा। ऐसी दशा में हिंसा, झूठ, चोरी आदि का व्यवहार किसके साथ करेगा ? सब अपने ही तो हैं, उसके । इस प्रकार स्वतः ही यह पाप से निरत हो जाएगा। पर कब ? जब इस प्रकार प्रयत्नशील होगा। जैसी नदी सतत महासागर की ओर गति करती रहती हैं, और लगातार समुद्र में अपने आप को खाली किये जाती है, वैसे ही साधक को अपने ध्येय रूपी सागर की ओर सतत गति प्रयत्न करते रहना चाहिए। जब भी साधक का यह प्रयत्न बन्द हो जाएगा, समझ लो वहां आत्मा को कोई न कोई खतरा उपस्थित हो जाएगा। रास्ते में पापरूपी लुटेरे साधक की संयम सम्पत्ति को लूट लेंगे। कुतुबनुमा की सुई की नोंक सदा आकाश में चमकने वाले किसी दूसरे तारे की ओर नहीं झुकती, सिवाय ध्रुवतारे के। वह केवल ध्रुवातरे के प्रकाश की ओर ताकती है। सूर्य उसे चकाचौंध करता है, पुच्छल तारे कृतरे मार्गों की ओर घूमने का उसे संकेत करते हैं, उसे देखकर छोटे-छोटे तारे झिलमिलाते हैं, उसकी प्रीति को बाँटना चाहते हैं। परन्तु अपने ध्येय की ओर उन्मुख कुतुबनुमा की सुई भूलकर भी कभी दूसरी ओर नहीं देखती। उसी तरह साधक को भी अपने उयेय मोक्ष के प्रति प्रयत्न के अतिरिक्त अन्य सांसारिक, भौतिक प्रलोभनों की ओर कहीं झुकना चाहिए। सच्ची दिशा में प्रयत्नशीलता ही यतना है। यतना का छठा अर्थ जय पाना मूल में 'जयंतं' शब्द है। संस्कृत में उसके दो रूप होते हैं- यतन्तं तथा जयन्तं । इसे जयणा - जयना भी कहा गया है, उसका अर्थ कल्पसूत्र टीका में किया गया है— 'जयना जयनशीलायां गल्यां' अर्थात् जिसकी गति जयनशील हो, उसे जयना
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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