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________________ २७४ आनन्द प्रवचन भाग ६ तथा स्वीकृत महाव्रतों में भी कुछ छूटें (रियायत) क्यों नहीं ले सकता ? इस सम्बन्ध में पुराने सन्त सोना और मोती खरीदने का उदाहरण देते थे। जैसे सोना खरीदने का इच्छुक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार एक दो माशा, या तोला दो तोला चाहे जितना परिमाण में खरीद सकता है, परन्तु मोती खरीदने के इच्छुक व्यक्ति को पूरा मोती ही खरीदना पड़ता है। मोती के टुकड़े नहीं किये जा सकते। यदि मोती के टुकड़े किए जाएंगे तो वह नाला में पिरोने योग्य नहीं रहोग। टूटे हुए मोती की कोई कीमत नहीं होती। अतः श्रावकव्रत सोने के समान और साधु के महाव्रत मोती के समान हैं। श्रावकव्रत में सिर्फ एक दिन के लिए भी अगंभजनित हिंसा या अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग हो सकता है, परन्तु साधु जीवन के महाव्रतों में एक दिन के लिए असत्य बोलने, हिंसा करने आदि की छूट नहीं दी जा सकती । वहाँ दीक्षा लेने से लेकर जीवनपर्यन्त महाव्रत पालन की शर्त है, उसमें एक दिन के लिए भी छूट नहीं दी जाती। एक दिन का महाव्रत भंग साधक जीवन का सर्वनाश कर देता है। इसलिए गृहस्थ-व्रतों की तरह साधु के महाव्रतों में स्वैच्छिक पथ-पालन की छूट या महाव्रत भंग की एक दिन के लिए भी छूट नहीं दी जा सकती। निष्कर्ष यह है कि साधु को अपनी आत्मा की रक्षा के लिए आत्मगुण रूप महाव्रतों की रक्षा करनी आवश्यक है। इसी को आत्मा का जतन कहते हैं। नियमों का भी जतन यतना के द्वारा महाव्रतों की रक्षा के लिए नियमों का पालन साधक-जीवन में आवश्यक माना जाता है, किन्तु कई दफा साधक के जीवन पर कई प्रकार के आकस्मिक संकट आ पड़ते हैं और ऐसी स्थिति में या किसी दुर्घटना (एक्सीडेंट) की स्थिति में मृत्यु होने की संभावना है। साधक अगर अभी परिपक्व नहीं है और हो सकता है, वह आर्त्तध्यान करे तो उससे मृत्यु हो जाने पर भी और जीवित रहने पर भी वह पापकर्म का बन्ध करेगा । अतः उत्सर्ग की तरह नियमों में कुछ आपवादिक नियम भी साधक के लिए बताये गये हैं। साधक ऐसी संकटापन्न स्थिति में सोचता है कि अगर मेरा शरीर टिक जाएगा तो मैं प्रायश्चित्त लेकर और धर्म का पालन कर सकूँगा, परन्तु आर्त्तध्णन करते हुए शरीर छूटा तो दुर्गति मिलेगी, धर्म पालन से वंचित रहूँगा, अतः ईमानदारीपूर्वक इस आपवादिक नियम का पालन कर लूँ। अपवाद में भी वह यथाशक्ति अकल्पनीय अनैषणीय वस्तु ग्रहण या सेवन नहीं करता, फिर भी अगर करता है तो यतनापूर्वव्त ही। यहाँ यतना अपनी शक्तिभर अकल्प्य अपवाद का त्याग करता हुआ, अकल्प्य का याना से सेवन करने अर्थ में है। ' यतना का पाँचवां अर्थ : प्रयत्न या पुरुषार्थ प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति में यति शब्द का अर्थ किया गया है- 9 यतना-स्वशक्त्या अकल्य- परिहारे
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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