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________________ यत्मवान मुनि को तजते पाप : ३ । २७३ हो जाती है। इसलिए उसकी सुरक्षा का अर्थ है,—आत्मा को क्रोधादि विजातीय द्रव्यों रागादि रिपुओं से विनष्ट होने से बचाना। इस पर भी एक बात अवश्य समझ लेनी है कि आत्मा की रक्षा के लिए धर्म-पालनार्थ शरीर और मन को भी स्वस्थ और सशक्त रखना आवश्यक है, परन्तु साथ ही साधक को यह भी देखना है कि जहाँ शरीर धर्म से विमुख हो रहा है, उत्पथ पर जा रहा है, इन्द्रियविषयासक्ति का बेसुराग छेड़ रहा है, अथवा धर्म पालन के लिए बिलकुल अशक्त और लाचार हो गया है। वहाँ साधक शरीर को या तो धर्म के पुनीत मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे या वह शरीर पर से ममत्व छोड़ दे, इसे सहर्ष विसर्जन कर दे, अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों में से एक की सुरक्षा (जतन) करने का प्रश्न हो, वहाँ शरीर को छोड़कर आत्मा की सुठा करे। वास्तव में शरीर एक प्रकार का वाद्ययन्न है। इसे ठीक ढंग से वहीं बजा सकता है, जो यतनाशील साधक हो। अन्यथा अगर यह इस वाजे के तारों को अत्यन्त कस देगा तो तार टूट जाएंगे, सुरीला स्वर नहीं निकलेगा, और यदि वह इत्त वाजे के तारों को अत्यन्त ढीला छोड़ देगा, विषयभोगों में रण करने की खुली छूट दे देगा तो भी इसमें से आध्यात्मिक सुखद संगीत नहीं निकलेगा। इसलिए साधक कठोर बनकर शरीर को अत्यन्त भूखा प्यासा, या अतिकठोर चर्या में रखेगा तो भी धर्मपालन नहीं कर सकेगा और शरीर को इन्द्रिय विषयभोगों में शुलकर खेलने की छूट दे देगा, तो भी धर्मपालन नहीं हो सकेगा। इसीलिए साधक को इन दोनों अतियों से बचकर इसका सन्तुलन रखना होगा। अगर शरीररूपी वाद्य को अनाड़ी यतनाशील साधक बजाने जाएगा तो यह नहीं बजेगा। संत कबीर ने ठीक ही कहा है कबीरा यन्त्र न बाजइ, टोटे गए सब तार । यन्त्र बिचारा क्या करे, 'बला बजावनहार । वास्तव में शरीररूपी वाद्ययन्त्र, अनपे-अगम में जड़, अचेतचन है, इसको बजाने वाला आत्मा है। जब आत्मा अयतनाशील होकर ठीक से इस बाध का जतन नहीं करेगा तो यह बेचारा कैसे बज सकता है ? दूसरी बात यह है कि आत्मा की सुरक्षा के लिए आत्मा के वास्तविक गुणों की रक्षा आवश्यक है। आत्मा के असली गुण हैं--सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र। सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति और साधु वर्ग के मौलिक नियम तप आदि आ जाने हैं। अतः रलत्रय की, विशेषतया महाव्रतों (मूल गुणों) की रक्षा होना अनिवार्य है। कुछ साधक कहते हैं कि जिस प्रकार गृहस्थ श्रावक के व्रतों में अनेक छूटे हैं। वह इच्छानुसार यथाशक्ति एक, दो या सभी व्रतों को ग्रहण कर सकता है तथा व्रतों में भी कुछ छूटें रख सकता है, वैसे महाव्रतों में इच्छानुसार एक दो तीन आदि महाव्रत
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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