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________________ २७२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ का जतन करना चाहिए या आत्मा का ? यह तां सर्वमान्य तथ्य है कि जब चारों ओर घर में आग लगी हो तो व्यक्ति सर्वप्रथम सारभूत वस्तुओं को निकाल कर उनकी रक्षा करता है, असार को जाने देता है। इसका मतलब हुआ, वह बहुमूल्य वस्तु का जतन करता है, अल्पमूल्य की उपेक्षा करता है। आज चारों ओर संसार का वातावरण खराब है, व्यक्ति असार वस्तु को संभालने और उसकी रक्षा करने मे लगा हुआ है। वह इस अज्ञानदशा में है कि पहले मुझे असार, नश्वर, क्षणभंगुर वस्तु को बचाना चाहिए कि सारभूत, अविनाशी, शास्वत को ? यह तो वही बात हुई कि वह सामान को बचाने में लगा है, पर सामान के मालिक को नहीं। ___ एक जगह किसी धनिक के घर में आग लग गई। उसने अपने नौकरों से बड़ी सावधानी से घर का सब सामान निकलवाया। उसने कुर्सियां, मेजें, कपड़े की सन्दूकें, तिजोरियाँ, खाने पीने का सामान, बहीखाते आदि सब कुछ निकलवा लिया, तब तक आग की लपटें चारो ओर फैल गई थीं। घर का मालिक बाहर आकर सब लोगों के साथ खड़ा हो गया। उसकी आँखों में आँसू हो वह हक्का-बक्का-सा अपने प्यारे भवन को आग में भस्म होते देख रहा था। अन्ततः उसने लोगों से पूछा - "भीतर कुछ रहा तो नहीं, सब सामान ले आये न?" वे छाले—“सामान तो हमारे ख्याल से कुछ नहीं रहा, फिर भी हम एक बार और देख आते हैं।" । नौकरों ने अन्दर जाकर देखा तो मालिक का इकलौता पुत्र कोठरी में मरा पड़ा है। कोठरी प्रायः जल रही थी। वे घबराकर बाहर आए और छाती पीटकर रोने लगे--"हाय ! हम अभागे घर का सामान बचाने में लगे रहे, मगर सामान के मालिक को बचाने का ख्याल तक न रहा।" धनिक तो भी सामान बचाकर सामान के भावी मालिक को खोने का बड़ा पश्चात्ताप हुआ। आज के गृहस्थ और साधु भी काया औग काया से सम्बन्धित सामान को बचाने में लगे हुए हैं, लेकिन काया का मालिक आला के जतन के विषय में कोई विचार ही नहीं है। इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा है-- अप्पा खलु सततं रक्खिपव्यो, सबिन्दिएहिं सुसमाहिएहि -चूलिका २ शरीर का जतना कहाँ तक ? प्रश्न होता है, आत्मा की रक्षा की तो कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आत्मा तो स्वयं अजर, अमर, अविनाशी है, फिर आत्मा की रक्षा के लिए कहने का आशय क्या है ? बात यह है कि आत्ला अजर-अमर होते हुए भी जब वह आत्मा से भिन्न विजातीय द्रव्यों-क्रोधादि से लिप्त हो जाती है, पापकों से लिप्त हो जाती है, तब वह अरक्षित
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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