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पत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २७१ बातें सुनकर चिढ़ता नहीं, रुष्ट नहीं होता, अपितु उनकी बातों पर ध्यान देकर तदनुसार अपनी त्रुटियों को दूर करने का प्रयल करता है।
एक शिष्य ने अपने आचार्य से आत्म-साक्षात्कार का उपाय पूछा। पहले तो उन्होंने समझाया-"यह साधना अत्यन्त बंतठेन है। इसमें पद-पद पर सावधान रहना पड़ता है। जरा-सी चूक करने पर साधक पतन की खाई में जा गिरता है। क्या तू इतनी कष्टसाध्य क्रिया कर सकेगा?" पर जब उन्होंने देखा कि शिष्य इस साधना के लिए तीव्र जिज्ञासु है, तब उन्होंने आदेश दिया-"वत्स ! एक वर्ष तक एकान्त में गायत्री मंत्र का निष्काम जाप करो। जाप पूर्ण होते ही मेरे पास आना। और देखना, जाप के दौरान कोई विघ्र बाधा, संकट या भीति उपस्थित हो तो बिलकुल विचलित न होना।"
शिष्य ने आचार्य के आदेशानुसार माधना प्रारम्भ की। वर्ष पूरा होने के दिन आचार्य ने झाडू देने वाली मेहतरानी से कहा कि अमुक शिष्य आए तो उस पर झाडू से धूल उड़ा देना। मेहतरानी ने वैसा ही किया। साधक उसे क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा, पर वह भाग गई। वह पुनः स्नान करके आचार्य की सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्य ने कहा-“अभी तो तुम सांप की तरह कानि दौड़ते हो। अतः एक वर्ष और साधना करो।" साधक को क्रोध तो आया, परन्तु उसके मन में आत्मदर्शन की तीव्र लगन थी, इसलिए गुरु-आज्ञा शिरोधार्य करके चला गया।
दूसरा वर्ष पूरा करने पर आचार्य ने मिहतरानी से उस साधक के आने पर झाडू छुआ देने को कहा। जब वह आया तो मेहतरानी ने वैसे ही किया। परन्तु इस बार वह कुछ गालियाँ देकर ही स्नान करने चला गया और फिर आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित हुआ आचार्य ने कहा--"अब कुन काटने तो नहीं दौड़ते, पर पुफकारते अवश्य हो अतः एक वर्ष और साधना करो।"
तीसरा वर्ष समाप्त होने के दिन आचार्य ने मेहतरानी को उस साधक पर कूड़े की टोकरी उड़ेल देने को कहा। मेहतरानी के सा करने पर शिष्य को क्रोध नहीं आया, बल्कि उसने हाथ जोड़कर कहा--"माता ! तुम धन्य हो। तीन वर्ष से तुम मेरे दोष निकालने के लिए प्रयत्नशील हो।" वह पुनः स्नान करके आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित हुआ। इस बार आचार्यश्री ने उसयतनावान साधक को दोषमुक्त और योग्य समझकर आत्मदर्शन की विद्या दी।
बन्धुओ ! इससे आप समझ सकते है कि साधक जीवन में यतना की कितनी आवश्यकता है।
यतनाका चौथा अर्थ : जतन (रक्षण) करना यों व्यक्ति यतनाशील होता है, वह प्रपों एवं दुर्गुणों से आत्मा की रक्षा करता है। लोकव्यवहार में भी जतन शब्द रक्षा के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
प्रश्न होता है, साधु को किस वस्तु काजतन करना चाहिए? उसे अपनी काया