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________________ २७० आनन्द प्रवचन : भाग ६ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि मासिक आवेगों से पुरुष का वीर्य पतला हो जाता है और स्त्री को रजोविकार का रोग पैदा हो जाता है। मानसिक चिन्ता, अशान्ति, उद्विग्नता और क्षोभ के कारण राजअक्ष्मा रोग हो जाता है। ईर्ष्या और द्वेष के कारण यकृत और तिल्ली बिगड़ जाती है। क्रोध और घृणा से गुर्दे विकृत हो जाते हैं। रक्त विषाक्त बन जाता है। चिन्ता और उदासी से फेफड़े कमजोर हो जाते हैं, मस्तिष्क विकृत और रक्त दूषित होता है। विषय-वासना की प्रबलता से वीर्य विकार, प्रमेह आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ईष्या, भय, क्रोध, लोभ, दैन्य, प्रद्वेष आदि मनोवेगों की दशा में खाया जाने वाला भोजन अच्छी तरह हजम नहीं होता। इसका कारण यह है कि ईर्ष्या, द्वेष, भय, शोक, क्लेश, निन्दा, घृणा आदि मानसिक आवेगों से प्रभावित दशा में पाचकरस बहुत अल्पमात्र में बनते हैं। इसलिए शरीर और मन दोनों दुर्बल हो जाते हैं। चिन्ता, शोक, भय, व्रतोध, लोभ आदि से अरुचि और अजीर्ण रोग होता है। चिन्ता आदि से आमाशयिक स्त्राव कम हो जाता है, भूख नष्ट हो जाती कहने का मतलब यह है कि साधक के मन की इन विकृतियों को आवश्यकता नहीं, बल्कि अनेक शारीरिक-मानसिक व्याधि और आत्मिक हानियों की जड़ समझ कर इन्हें प्रारंभ में ही प्रविष्ट नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि ये साधक की अयतना (असावधानी) से प्रविष्ट होती हैं। शारीरिक-मानसिक व्याधियों और आत्मिक-हानियों की स्थिति मे पापों का आना स्वाभाविक है। पापों का आगमन तो तभी रुक सकता है, जब मन की इन विकृतियों को आते ही खदेड़ दें, कदाचित् लाचारीवश या भ्रान्ति से ये प्रविष्ट हो जाएँ तो मन को तुरन्त ही ओमेक गुणों क्षमा, दया, सरलता, सत्य, शान्ति आदि के चिन्तन-मनन में लगा देना चाहिए। कई बार मन यशकीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा आदि कृत्रिन आवश्यकताओं को सच्ची आवश्यकताएं बताकर साधक को बहकाता है ,उस समय साधक को तुरन्त फटकारकर मन को वहाँ से हटा देना चाहिए। यतना : आत्मसाक्षात्कार का मार्ग यह निश्चित है कि साधक जब यतगाकी साधना करता है तो अपने में निहित दोषों को वह एक-एक करके दूर करता है। जब यतना के तीव्र अभ्यास से वह निर्दोष-निष्पाप बन जाता है, तब शुद्ध आत्मा का दर्शन होते उसे देर नहीं लगती। अपने में निहित दोषों को निकालने का इच्छुक यतनाशील साधक प्रतिक्षण सावधान रहता है। वह अपने हितैषियों के द्वारा अपने में प्रविष्ट दोषों को सुझाने, अपनी यतनासाधना की परीक्षा लेने एवं अपने को शुद्ध मार्गदर्शन कराने वालों की १ देखिये-चरक चिकित्सा स्थान, शुद्धि स्थान, अष्टांगहृदय, सुश्रुत स्थान, आदि आयुर्वेदिक ग्रन्थों में।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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