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________________ यतनवान मुनि को तजते पाप : ३ २६६ मनमोहक चित्ताकर्षक पदार्थों को देखकर ललचाया करेगा, न तो वह उन सबको प्राप्त कर सकेगा और न ही उपभोग। केवल मन को झूठ-मूठ बहलाकर वह अपने त्याग और संयम पर काला धब्बा लगाता रहेगा। यतना : मन की आवश्यकताओं पर चौकीदारी जैसे शरीर और इन्द्रियों की आवश्यकताओं पर चौकीदारी रखना साधक के लिए आवश्यक है, वैसे ही मन की अश्यकताओं पर भी चौकीदारी रखना अत्यावश्यक है। मन की मुख्य खुराक या आवश्यकता है. मनन-चिन्तन । जब साधक जागृत नहीं रहता तो उसका मन विकृत मनन-चिन्तन में लग जाता है। मन कभी खाली नहीं रहता। समुद्र की तरह हर समय तरंगायित रहता है। जैसे समुद्र की असंख्य लहरें होती हैं वैसे ही मन बी ये विकृत लहरें भी अगणित प्रकार की मन की ये विकृत लहरें 'आवेग' कहलाती हैं। मुख्यतया ये आबेग ४ प्रकार के होते हैं—(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । राग, द्वेष, मोह आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। ये अपनी अपनी मात्रा के अनुसार असाबधान मानस को प्रभावित करते हैं। मात्राओं को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- मन्द, तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा (घृणा) और काम-विकार ये उप-आवेग हैं। आवेगों की अपेक्षा उप-आवेगों की शक्ति कम होती है। क्रोध आदि की शक्ति तीव्र होती है, ये व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के उपरान्त उसके आत्मिक गुणों-सम्यग्दर्शन और आत्मनियन्त्रण को भी प्रभावित करते हैं, जबकि भय आदि उप-आवेग व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को इतना साक्षात प्रभावित नहीं करते, जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। ___ वस्तुतः तीव्रतम क्रोध, मान, आदि व्यक्त के सम्यग्दृष्टित्व का घात करते हैं, उसमें विकृति ला देते हैं। तीव्रतर क्रोध आदे मनुष्य की आत्मनियन्त्रण शक्ति को छिन-भिन्न कर डालते हैं। तीव्र क्रोधादि आता संयम की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं और मन्द क्रोधादि साधक को वीतरागता की प्राप्ति नहीं होने देते। __अयतनाशील साधक का मन इन विकृत लहरों पर नाचने लगता है, आवेगों और उप-आवेगों का तूफान असावधान साहक को सहसा पछाड़ देता है। उसके आन्तरिक गुणों पर जो प्रभाव होता है, वह इतना सूक्ष्म होता है कि अनन्यस्त एवं अजागृत साधक सहसा उसे पहचान नहीं पाता। परन्तु शरीर ओर मन पर उनका जो प्रभाव होता है, वह तो चिकित्साशास्त्र से हमें ज्ञात होता है। चिकित्साशास्त्र में साफ-साफ बताया गया है कि मानसिक-चिन्ता, निराशा, भय,
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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