SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ । कितनी मात्रा में और कब तक है ? यदि साधक को मालूम हो जाए और उसे मालूम करना ही चाहिए कि इन पांचों में कोई भी इन्धि अनावश्यक और विपरीत मार्ग में ले जाकर अपने अनिष्ट और अहितकर विषय में फँसाना चाहती है तो फौरन सावधान होकर वहाँ से अपनी उस इन्द्रिय को हटा ले, उसमें फिर एक क्षण के लिए भी विलम्ब न करे। अन्यथा, साधक इस विषय-जाल में फंसकर शीघ्र ही पतित हो जाएगा। इन्द्रियविषय के साथ मन भी अपनी कृत्रिम एराक ढूंढ़ता रहता है। लोभी मनोवृत्ति अगणित अनावश्यक विषयों या पदार्थों की और मन को विचलित करती रहती हैं। इसलिए यतनाशील साधक को इतना सावधानाहना है कि मन कहीं इन इन्द्रियविषयों के साथ मिलकर अपनी गलत मनोवृत्ति के कारण उनमें राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का रंग न भर दे। मन की कृत्रिम आवश्यकताएं और यतना मन अक्सर कृत्रिम रस ढूंढ़ा करता है, इन इन्द्रिय-विषयों में। जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबाते समय अपना जबड़ा छिल जाने पर भी उससे टपकने वाले खून को हड्डी का स्वाद मानता है, मगर स्वाद या रस हड्डी में नहीं होता, वैसे ही अशिक्षित मन संसार के विविध पदार्थों में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों का विभिन्न रंग देखकर उसमें सरसता या नीरसता की कल्पना किया करता है। संसार के विभिन्न पदार्थों में सरसता की मृगतृष्णा में मन फँसाहता है। साधक को इन अनावश्यक कृत्रिम रसों में मन को नहीं फँसने देना चाहिए, फौरन उसे प्रभुभक्ति, ज्ञानपिपासा, आत्मस्वरूपरमणता, दर्शनविशुद्धि, संयम के अनुष्ठानों में लगा देना चाहिए। अन्यथा, वह एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात् तीसरे यों अगणित जड़-पदार्थों में रस ढूंढ़ता फिरता रहेगा, और एक दिन साधक की अध्यात्मसाधना को चौपट कर देगा। जैसे भौंरा एक फूल से दूसरे फूल और तीसरे पर रस की खोज में मंडराता रहता है, पुराना नीरस लगा, तो दूसरे में अधिक स की आशा दिखाई दी, उड़कर जा पहुंचता है, उस पर। इसी प्रकार अयतनाशीला साधक का मन भी नये से नये पदार्थ में रस खोजने हेतु भटकता है। जैसे वैभवशाली गुहस्थ थाली की शोभा नहीं मानता, जब उसमें अनेकों प्रकार के चटपटे, सरस, स्वादिष्. व्यंजन परोसे गये हों, जरा-जरा सा सबका स्वाद चखने को मिले, इसी प्रकार अयल्साशील साधक का भी रसलोलुप चंचल मन विविध खाद्य-पदार्थों में रस ढूंढता फिगा, विविध रसों को अपनी दैनिक आवश्यकता मान बैठेगा। जिन गृहस्थों के पास साधन-सुविधाएं हैं, वे नई-नई डिजाइनों के वस्त्र जमा करते रहते हैं, और कभी किसी को एवं कभी किसी को पहन कर सुन्दर दिखलाने की अपनी लालसा पूरी करते हैं, वैसे ही अयतनशील बनकर साधक भी करता रहे तो उप्तके संयम का थोड़े ही दिनों में दिवाला निकल जाएगा। मन संसार के नये-नये
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy