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यत्वान मुनि को तजते पाप : ३
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है। ये दोनों वस्तुएं कृत्रिम उपायों से उपलब्ध होती हैं। पात्र (बर्तन) और मकान आवश्यक होते हुए भी साधक इन्हें फैशन और प्रदर्शन की दृष्टि से ग्रहण नहीं करेगा, न ही कृत्रिम आवश्यकता बढ़ाकर इनका संग्रह करेगा। यह शास्त्रोक्त मर्यादा अथवा अपने विवेक के अनुसार ही भोजन, वस्त्र, Pात्र और मकान का ग्रहण आवश्यकता पड़ने पर करेगा। साधु मर्यादा के अनुसार किसी समय ये आवश्यक पदार्थ न मिलने पर भी साधु अपने मन में शोक या आर्तध्यान नहीं करेगा, और न ही मनोज्ञ सुन्दर वांछित पदार्थ मिलने पर नन मे गर्व करेगा। यह अदीनवृत्ति से ही इन्हें ग्रहण करेगा।
खेद है कि आज साधुवर्ग के जीन में भी गृहस्थ लोगों की देखा-देखी शान-शौकत बढ़ाने और प्रदर्शन की भावना रायः घर कर गई है। यतना को उन्होंने शास्त्र की वस्तु मानकर ताक में रख दिया है। मगर जब आवश्यकता वृद्धि के कारण परतन्त्रता बढ़ जाती है, संयम के तंग ढीले पड़ने लगते हैं, तब आवश्यकताएँ बढ़ाए हुए शुकराजर्षि की तरह मोहनिद्रा से वे जागते हैं। किन्तु एक बात निश्चित है कि ज्यों-ज्यों जीवन के लिए वस्तुएँ कम आवश्यक होती जाती हैं त्यो-त्यों वे अधिकाधिक कृत्रिम उपायों से उपलब्ध होती हैं। इस कारण उनका मूल्य भी बढ़ता जाता है। परन्तु सादगी और सर्वसुलभ आवश्यक पदार्थों से जीवन निर्वाह करने में जो सुख-शान्ति और स्वतन्त्रता है, वह तड़क-भड़क, फैशन और बहुमूल्य दुर्लभ पदार्थों से जीबन चलाने मे कहाँ ? पर इसे धन एवं सत्ता के मद में ग्रस्त लोग कहाँ समझते हैं ? वे प्रतिष्ठा का भूत दिमाग में लिए फिरते हैं। कहते तो यों है कि पेट के लिए यह सब करना पड़ता है, परन्तु मन में पोजीशन की धुन सवार रहती है। क्या बड़े बड़े आलीशान बंगले, कार, कोठी, रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेरेलिन, नाइलोन या टेरीकोट आदि पेट के लिए आवश्यक हैं ? प्रतिष्ठा और शान-शौकत की होड़ में मनुष्य कृत्रिम आवश्यकताएँ बढ़ाता है। अगर साधु भी इन अनावश्यक पदार्थों को ग्रहण करना चाहता है तो उसे भी धनिकों की गुलामी करनी पड़ेगी, या उनकी ठकुरसुहाती कहनी पड़ेगी। मगर यतनाशील साधक के जीवन की शोभा आश्यकताएं बढ़ाने में नहीं, घटाने में है। आवश्यकताएं कम होने पर उसका जीवन तेजस्वी, मस्त और अलमस्त बनता है।
पांचों इनियों की आवश्यकताएं-अनावश्यकताएँ इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों की आवश्यकताएं अपना-अपना विषय हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय श्रवण है, चक्षुरिन्द्रिय का प्रेक्षण, घ्राणेन्द्रिय का अन्धग्रहण, रसनेन्द्रिय का स्वादग्रहण एवं स्पर्शेन्द्रिय का विषय है पदार्थों का कोमल-कठोर आदि स्पर्श । यतनाशील आवश्यकता होने पर इन पाँचों इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करता है, परन्तु इस बात की पूरी यतना (सावधानी) रखता है कि ये पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने से पहले मन ही मन तटस्थ दृष्टि से कठोरतापूर्वक विश्लेषण करें कि क्या इस विषय का ग्रहण करना मेरे लिए आवश्यक है ? यदि आवश्यक है तो