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आनन्द प्रवचन : भाग ६
आवश्यक-अनावश्यक की परवाह किये बिना परीर को तगड़ा और मोटा बनाने के लिए बिना ही जरूरत के पेट में दूंसे जाते हैं। वे बिना भोजन के एक दिन भी नहीं रह सकते, इसके अतिरिक्त स्वादलोलुप लोग आवश्यक भोजन के सिवाय कई तरह के व्यंजन, मिष्ठान्न, चटनी, अचार, मुरब्बे और न जाने क्या-क्या पेट में लूंसते रहते हैं। ऐसे भोजनभट्ट लोग स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा करके भी पेट भरने को ही अपना लक्ष्य मानते हैं। उनका लक्ष्य जीने के लिए खाना नही, खाने के लिए जीना होता है। उनमें और भुखमरे में शायद ही कोई अन्तर होगा?
एक चौबेजी के पुत्र ने अपने पिता से कहा-" पिताजी ! आज तो बड़ी दुविधा में फंस गया हूं।" पिताजी ने पूछा- "ऐसी क्या बात है ? क्या आज कहीं से भोजन का न्यौता नहीं मिला ?" पुत्र ने खेटक कहा-" भोजन का न्यौता तो मिला था और मैं अभी-अभी वहां से हटकर भोफन करके आया हूं। लेकिन फिर एक यजमान का निमंत्रण आया है, पेट में जगह नहीं है। पेट तो फटा जा रहा है।" पिता ने फटकारते हुए कहा- "मूर्ख ! प्राण तो दुबाप्र भी मिल जाएँगे, लेकिन भोजन का निमंत्रण दुबारा मिलना मुश्किल है।"
आप अपने दिल में सोचें कि हम भी क्या इसी तरह स्वादेन्द्रिय की तृप्ति के लिए भोजन तो नहीं करते ? यतनाशील साधक को जो अपने अन्तर से पूरा विवेक करना होगा कि मुझे श्रावकगण तो भक्तिवश सरस स्वीष्ट भोजन दे रहे हैं, किन्तु क्या मैं इस भोजन के बिना चल नहीं सकता ? यदि इस मोजन के सिवाय अन्यत्र कहीं सादा भोजन सुलभ नहीं है तो क्या श्रावक जितना आग्रह करे, उतना ही लेना आवश्यक है? केवल पेट को भाड़ा देने और शरीर को टिकाने के लिए ही तो मुझे भोजन करना है ? क्या मैं इस स्थूल आहार को छोड़कर सूक्ष्म अकार से काम नहीं चला सकता ? इस प्रकार यतनाशील साधक सूक्ष्म प्रज्ञा से निर्णय की।
चौथी आवश्यक वस्तु है-वस्त्र । वस्त्र के बिना भी मनुष्य रह सकता है, किन्तु ऐसी शक्ति सभी मनुष्यों में नहीं होती। वस्त्र धारण का मुख्य प्रयोजन है---शीत ताप से शरीर की सुरक्षा और लज्जानिवारण। किन्तु सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता गया, त्यों त्यों अधिकाधिक वस्त्रों से और वह भी बारीक, बहुमूल्य एवं अनुपयोगी वस्त्रों से सुसञ्जित होना सभ्य व्यक्ति का लक्षण माना जाने लगा। जिस प्रान्त के लोग प्राचीनकाल में एक अधोवस्त्र और एक चादर कत्र के रूप में पहनते थे, आज वहाँ के लोग भी पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में पड़ब्तर पश्चिम का अन्धानुकरण करने लग गये हैं। इस गर्म देश में भी वे लोग कोट-पैंट के बिना रह नहीं सकते।
आज बहुत-से लोग तो प्रदर्शन के लिए वस्त्र पहनते हैं। उस पर भी बे आवश्यकता से कई गुना वस्त्रों का संग्रह रखते हैं। मगर यतनाशील साधक अत्यन्त अल्प वस्त्रों से ही अपना निर्वाह करता है।
जीवन निर्वाह के लिए पांचवीं आवश्यक वस्तु है—पात्र और छटी वस्तु मकान