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यत्यान मुनि को तजते पाप : ३ २६३ कुण्डलिनी जागृत हुई। नचिकेता की सभी भौतिक वासनाएँ जल गई। वह शरीर, मन, प्राण आदि से ऊपर उठकर आत्मा हो गया। ब्रह्मप्राप्ति के निकट पहुँच गया, तब गुरु से विदा लेकर वह आर्यावर्त को लौट पड़ा।
सारांश यह है कि नचिकेता जिस प्रतार शरीर का ममत्व त्यागकर, भौतिक सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देककर एकमात्र सतत अपने लक्ष्य के प्रति आगे बढ़ता रहा, वैसे ही यतनाशील साधु को आत्मभार में रमण करने के लिए शरीर, मन, इन्द्रियाँ, प्राण आदि का मोह छोड़कर इनी सतत संघर्ष करना होगा, भौतिक सुख-सुविधाओं से विरक्ति पानी होगी, तभी लाक्ष्य के प्रति एकाग्र होकर वह आगे बढ़ सकेगा और पापों से मुक्ति पा सकेगा। शास्त्र में बताया गया है
'अप्पाणं वोसट्टकाष्ठ, चइत्तदेहे' -साधक की यतनासाधना इतनी तीज्ञ हो जाय कि वह अपनी काया तथा काया से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति ममत्व का उत्सर्ग करे, शरीर छोड़ने तक की तैयारी रखे। भगवान महावीर ने यतना की अप्रमत्तता (सावधानी) के रूप में साधना के लिए साधकों को प्रेरणा दी है
खिप्पं न सकेर विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय हाय कामे। समिच्च लोयं समया महेसी
आयाणुरक्खी चर अप्पमत्ते।। आत्म-विवेक (शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान) झटपट प्राप्त नहीं हो जाता। इसके लिए कठोर साधना आवश्यक है। महाँग का कर्तव्य है कि वह बहुत पहले से ही संयम-पथ पर दृढ़ता से जमा रहकर कामभोगों का परित्याग करके संसार की वास्तविक स्थिति को समझे और समतापूर्वक कुसंस्कारों—पापकर्मों से अपनी आत्मा की रक्षा करते हुए सदा अप्रमत्त रूप (यतना) में विचरण करता रहे।
यतना कहाँ-कहाँ और किस प्रकार रखनी है ? अब सवाल यह उठता है कि सावधानी या अप्रमत्ततारूप यतना कहाँ कहाँ और कैसे रखनी है ? हमारी आत्मा अकेली नहीं है, उसके साथ छह सम्पर्कसूत्र हैं, जो हमें बाह्यजगत से जोड़े हुए हैं, एक है हमारा मन धौर पाँच इन्द्रियाँ हैं। यदि ये ६ सम्पर्क के माध्यम न होते तो हमारी दुनिया दूसरी ही बोती। हमें कोई यतना या सावधानी की जरूरत न रहती। क्योंकि ये ६ सम्पर्क के माधषम आत्मा के साथ आत्मा के अनुकूल या आत्मा के आज्ञाधीन सेवक बनकर प्रायः नहीं रहते। साधक को सतत् सावधान रहकर इन्हें अपनी आत्मा के सेवक बनाना है। परन्तु ये बाहर के दृश्यवान जगत् से सम्पर्क साधकर आत्मा के लिए अनेक खतरे अंदा कर देते हैं। जैसे कारखाने में काम