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आनन्द प्रवचन : भाग ६
शूर संग्राम को देख भागे नहीं, देख भागे सोई शूर नाहीं।
वास्तव में, यतनाशील साधक यतना काकवच पहनकर जब जीवन-संग्राम के मैदान में उतरता है, तब तन के सारे बन्धन खोत देता है। कबीर ने एक दोहे में यही वात कह दी है
शूरा सोई सराहिए, अंग न पहरे लाह। - जूझे सब बन्द खोलि के, छौड़े तन का मोह ।। इसी सिद्धान्त पर नचिकेता को चलने का प्रशिक्षण यमाचार्य दे रहे थे। अन्नसंस्कार के बाद यमाचार्य ने नचिकेता को प्राणायाम के विविध प्रयोगों का अभ्यास कराया, जिसके फलस्वरूप उसका आहार निरन्तर घटता गया, किन्तु मुखमण्डल की कान्ति में वृद्धि हुई। यह देख गुरुमाता ने पुनः दुःखी होकर यमाचार्य से कहा- "स्वामिन् ! नचिकेता अपना पुत्र नहीं है। उसके साथ कठोरता न बरतिये।"
यमाचार्य ने हँसते हुए कहा-"भद्रे ! शिष्य तो पुत्र से बढ़कर होता है। नचिकेता के हृदय में तीव्र आत्मजिज्ञासाएँ हैं। वह वीर और साहसी बालक आत्म-कल्याण-साधनाओं की प्रत्येक कठिनाई इालने में समर्थ है। इसलिए नचिकेता को प्राणायाम की यह पंचाग्नि विद्या सिखाना अाश्यक है। इससे चाहे आहार कम हो गया हो, किन्तु प्राण स्वयं आहार की पूर्ति कर देते हैं। आत्मा अग्निरूप है, वह प्राणों से प्रकाशवान है, प्राणायाम से पुष्ट होती है, इसी से उसे हर पौष्टिक आहार मिलते
नचिकेता का एक वर्ष इस प्रकार की रयाणसाधना में बीता। प्राणमय कोष के नियन्त्रण के बाद यमाचार्य ने उसे मनोमय कोषपर नियन्त्रम करना सिखाया। यमाचार्य ने उसे मन के प्रत्येक संकल्प को पूर्ण करने का अभ्यास कराया। इससे नचिकेता जब सोता तो अचेतन मन की पूर्वजन्मों की स्मृतियां स्वप्न-पटल पर उमड़तीं, आत्मग्लानिजनक पापक्रियाएँ भी उसे यमाचार्य को बतलानी पड़तीं। किन्तु यमाचार्य ने मन की शुद्धि के लिए इस प्रक्रिया को आवश्यक बताया; अन्यथा पूर्वजन्मकृत पापों की शुद्धि के लिए प्रायश्यिचत्त नहीं हो सकेगा। अतः मनोमय कोष की शुद्धि के लिए नचिकेता को कृच्छ, चान्द्रायण आदि व्रतों से लेकर पंचगव्यसेवन तक की सारी प्रायश्चित्त साधनाएँ करनी पड़ी। तीन वर्ष बीत गए | उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही साधना की कठोरता एवं शरीर की कृशता देखकर गुरुमाता का हृदय करुणा से सिसक उठता पर आत्मा की ग्रन्थियाँ तोड़कर उसे प्रकट काने के संग्राम के लिए यह साधना करनी आवश्यक समझकर यमाचार्य ने कराई। इससे शरीर शुद्ध हो गया, प्राणों पर नियन्त्रण की विद्या सीख ली, मन क्षीण हो गया, मनोमय कोष को उसने जीत लिया। फिर उसने मन को ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कराकर षट्चक्र-दन किया; और मूलाधार स्थित उसकी