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________________ २६० आनन्द प्रवचन : भाग ६ गोस्वामी तुलसीदास ने बड़े मार्मिक शब्दों में साधु को यतनाशील बनने की प्रेरणा दी है जग से रहु छत्तीस है, रामचरन छह तीन । तुलसी देखु विचार हिय, है यह मतो प्रवीन । । साधक को इतना सावधान होकर चलना है कि संसार में विचरण करते हुए भी वह संसार से सांसारिकता दुनियादारी के प्रचों से निर्लिप्त एवं विमुख होकर रह सके। सन्त कबीर ने दुनिया को काजल कोठरी की उपमा देते हुए कहा है-- काजर केरी कोठरी, सा यह संसार। बलिहारी वा साघु की, पैठि के निकसन हार । । अन्यथा, बाह्य रूप से कुटुम्ब-कबीला एक भोग-सामग्री को छोड़ देने पर भी वह पुनः पुनः साधक के असावधान मानस में अच जमा लेगी। अयतनाशील साधक के एक कुटुम्ब छोड़ देने पर भी यहाँ शिष्य शिष्याओं, भक्त-भक्ताओं की आसक्ति घेर लेगी। इसी प्रकार एक घर छोड़ देने पर भी धनेक भक्तों के घरों और सम्प्रदायरागी लोगों के ग्राम-नगरों का मोह पुनः जकड़ लेगा। धन-सम्पत्ति का परिग्रह छोड़ देने पर भी पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, आदि की मूर्छा पिण्ड नहीं छोड़ेगी। इन सबसे पिण्ड तभी छूट सकता है, जब साधक प्रतिपद सावधान, प्रतनायुक्त होकर इनमें मिले नहीं, इनसे निर्लिप्त होकर रहे। एक पाश्चात्य विचारक वेनिंग (Venning) ने ठीक ही कहा "Some rivers, as historians tell us, pass through others without mingling with them; just so should pass a saint through this world." "जैसा कि कुछ इतिहासज्ञ कहते हैं, कुछ नदियाँ दूसरी नदियों के साथ बिना मिले ही उनके पास से होकर गुजर जाती हैं, जैसे ही साधु को इस संसार से बिना मिले ही पास से होकर गुजरना चाहिए।' यतनाशील साधक सोया हुआ नहीं रह सकता। वह प्रमादी बनकर अपने साधु जीवन के प्रति असावधान नहीं रह सकता। मोने वाला साधक अपने संयम वैभव को खो देता है। वह जीवन-निर्माण के सुन्दर अवारों को गँवा देता है। इसीलिए प्रतिक्षण सावधान भक्ता मीराबाई ने कहा था "शूली ऊपर सेज हमारी, किस विध सौणौ होय ?" मेरी शव्या तो शूली पर है। शूली पर जिसकी शय्या है, वह गाफिल बनकर कसे सो सकता है ? वह तो प्रतिक्षण जागृत और अप्रमत्त रहकर ही प्रियतम से मिल सकता है। आचारांग सूत्र के शब्दों में यतनाशील साधक की पहिचान होगी-- "सुत्ताऽमुणिणो, मुणिणीसया जागरंति।" अमुत्ति सदा सोये रहते हैं, किन्तु मुनि सदैव जागृत रहते हैं। वास्तव में, मुनि
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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