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कानवान मुनि को तजते पाप : ३
साथ कहावन कठिन, लंबा पेड़ खजूर। चढ़े तो चाखे प्रेमरस, गिरे तो चकनाचूर ।।
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वास्तव में साधु का जीवन खजूर के पेड़ की तरह बहुत ही ऊँचा है । परन्तु अगर साधु सावधानी (यतना) पूर्वक इतनी ऊँचाई पर चढ़ जाता है तो संयम और प्रेम के माधुर्य का आस्वादन कर लेता है; और अगर वह अयतनापूर्वक चढ़ता या चलता है, तो इतनी ऊँचाई पर चढ़कर भी शीघ्र ही गिर जाता है।
ऐसे साधक लक्ष्यभ्रष्ट हो जाते हैं, बि अपना लक्ष्य स्थायी और सुदृढ़ को न बनाकर अस्थायी और क्षणभंगुर को बना लेते हैं। मैं एक रूपक द्वारा इसे समझा दूँ -- एक चिड़िया नीले गगन में मँडरा रहीं थी। उसने ऊपर कुछ दूरी पर चमकता हुआ शुभ्र बादल देखा। देखते ही सोचा- चट से उड़कर उस बादल को छू लूँ । ' यों वह चिड़िया उस बादल को लक्ष्य बनाकर पूरी शक्ति से उड़ी, किन्तु वह बादल कभी तो पूर्व की ओर चला जाता, कभी पश्चिम की ओर। और कभी वह सहसा रुक जाता, फिर चक्कर लगाने लगता। यों वह फैलता गया, लेकिन वह चिड़िया उस तक पहुँच ही नहीं पाई थी कि वह एकदम विखा गया और आँखों से ओझल हो गया । उस चिड़िया ने बहुत परिश्रम से वहाँ पहुँचकर भी जब कुछ न पाया तो मन ही मन सोचा----" में कितनी भ्रान्ति में थी ! मैंने उन वरस्थायी सुदृढ़ पर्वत शिखरों को लक्ष्य न बनाकर इन क्षणभंगुर बादलों को लक्ष्य बनाया। '
क्या यही हाल अयतनाशील साधुओं का नहीं है ? वे भी अपना लक्ष्य स्थायी शाश्वत शान्ति के धाम को न बनाकर मोक्ष की प्राप्ति और उसके लिए राग-द्वेष-मोह, कषाय आदि से मुक्ति के यतनापूर्वक पुरुषार्थ का ध्यान न रखकर अस्थायी, शरीर की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाने वाली एवं क्षणभंगुर यश-कीर्ति, नामना, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा आदि को अपना लक्ष्य बनाते हैं और उन्हीं की प्राप्ति के लिए साधन जुटाने और पुरुषार्थ करने का ध्यान रखते हैं। यतनाशील साधु को इन और ऐसी अस्थायी और क्षणभंगुर वस्तुओं को अपना लक्ष्य न बनाकर स्थायी और शाश्वत वस्तुओं को लक्ष्य बनाना उपयुक्त है। मगर असावधान साधक भ्रांतिवश ऐसी अस्थाई और क्षणभंगुर चीजों को पाने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करते हैं, जो अन्त में जाकर बादलों की तरह बिखर जाती हैं, अदृश्य हो जाती है। अयतनाशील साधक इस असावधानी के शिकार बनकर अस्थायी की प्राप्ति के लिए अनेकों हथकंडे अपनाते हैं। वे यह भूल जाते हैं, इन अस्थायी वस्तुओं, क्षणिक सांसारिक सुख-सुविधाओं, नामना एवं प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़कर, कितना पाप उपार्जन कर लेते हैं-- ईर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, पर-निन्दा, स्वप्रशंसा जरादि के माध्यम लेकर ? कबीरजी भी यथार्थरूप से ललकार रहे हैं-
माया तजी तो क्या भया, मान तजा नहिं जाय। मान बड़े मुनिवर गले, मान सबन को खाय । ।