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________________ ३४.. यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष उसी अट्ठाइसवें जीवनसूत्र पर यतना के विविध रूपों का विश्लेषण करूँगा। यतना एक ऐसा शब्द है: जिस पर विविध पहलुओं से जितना विचार किया जाए, थोड़ा है। यह एक प्रकार की जैनयोग साधना है। साधु जीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इसकी साधना चलती है। साधु चाहे बालक हो, युवक, वृद्ध हो, बाह्य शिक्षण की दृष्टि से चाहे कम पक्ष-लिखा हो या अधिक, शरीर से पुष्ट हो या दुर्बल सभी अवस्थाओं में सर्वत्र यतना की साधना तो उसे अवश्यमेव करनी पड़ती है। मुनिदीक्षा लेते समय प्रत्येक साधक के माता-पिता या अभिभावक उसे हार्दिक आशीर्वाद देते हुए उससे आजीवन यतना-युक्त जीवन-यापन करने की अपेक्षा रखते हैं। देखिए भगवती-सूत्र में जमालि की दीक्षा बेत समय उनकी माता के उद्गार-- "घडियद जाया ! जइयच्वं जाया, परकमियबं माया ! अस्सिं च णं अडे णा पमाए।" 'हे पुत्र ! तू संयम पालन की चेष्टा करना, तू यतनापूर्वक जीवन यापन करना, पुत्र ! तू संयम में पराक्रम करना। इस बात में जरा भी प्रमाद न करना।' साधु के निष्पाप जीवन का मूल : यतना साधु के यावजीवन यतनावान बनने की अपेक्षा इसलिए रखी जाती है कि उसका जीवन सैदव निष्पाप, निखध निरुपाधिक, निर्द्वन्द्व, निःसंग, निष्कषाय एवं निर्लेप होना चाहिए। और इस प्रकार का जीवन तभी बन सकता है, जब साधु के जीवन में प्रतिपल और प्रतिक्षण यतना श्वासोच्छ्वास की तरह व्याप्त हो। यतना साधु के जीवन में नहीं होगी तो उसका जीवन निष्पाप एवं निष्कलुष नहीं रह सकेगा। इसीलिए गौतम ऋषि को कहना पड़ा चयंति पावाई मुणी जयंतं जो मुनि यतनावान है, उसे पाप छोड़ी हैं, पाप उसके पास नहीं फटकते। प्रकारान्तर से कहें तो यतनावान मुनि का जीवन निष्पाप रह सकता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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