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________________ २५४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ मात्रा में हो, पर हो उत्कृष्ट ढंग से, सम्यक् रूप से। जैसे बौद्ध धर्मग्रन्थ संयुक्त निकाय में बताया है कि 'बुरी तरह करने की अपेक्षा न करना अच्छा है, क्योंकि अच्छी तरह करने पर बाद में पश्चात्ताप नही होता।' बर्तमान भौतिकवादी युग में विस्तार को महत्व दिया जाता है, किन्तु अध्यात्म जगत् में उत्कृष्टता का महत्व है। यहां कितना काम किया ? इसका महत्त्व नहीं, किन्तु जो करणीय कार्य है, उसे किस ढंग से किया? इसका बहुत महत्त्व है। यही यतना का विवेक रूम अर्थ है। निष्कर्ष यह है कि प्रवृत्ति बहुत नहीं, किन्तु उत्कृष्ट हो, सम्यक् हो। मोक्षमार्ग के रलत्रयरूप तीन साधनों के साथ हमारे यहाँ सम्यवत शब्द लगा है। बौद्ध धर्म के अष्टांग सत्य में भी प्रत्येक के साथ सम्यक् शब्द लगा है। यों तो साधक जीवन की सभी क्रियाएं नीरस-सी लगती हैं, किन्तु नीरस को सरल बनाना साधक की अपनी मनोवृत्ति तथा अपनी यतनायुक्त प्रवृत्ति पर निर्भर है। अतः छोटी-सी एवं तुच्छ मानी जाने वाली क्रिया में समग्र प्राण उड़ेल देने तथा यातना की शाणवायु फूंक देने पर वह महत्त्वपूर्ण ' एवं उत्कृष्ट बन जाएगी। यही विवेक रूप यतन का चमत्कार है। बन्धुओ ! मैं इस जीवनसूत्र के विवेचन कर यहीं समेट लेना चाहता था, लेकिन अभी यतना के अन्य अर्थों पर भी हमें विचार करना है, इसलिए अगले प्रवचन में उन पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा। आशा हैं, आप यतना के विविध रूपों को समझकर अपने जीवन को कलापूर्ण बनाने का पुरस्षार्थ करेंगे। 'सामाइपस्स अमवद्विपस्स करणयां' 'सामष्टायं सम्मं कारणं न फासियं, न पालियं न तीरिथं, न किद्वियं, न सोहियं, न आग्रहियं, आणाए अणुपालियं न भवइ ।' 'पोसहस्स सम्म अणणुपालणया।' -संयुत्त १/२/८
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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