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गलवान मुनि को तजते पाप : २ २५३ ही सुनने, चखने, देखने, सूंघने और स्पर्श करने का काम करते हैं। मन में जो विविध संस्कार जम गये हैं, प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा विषय ग्रहण करते समय टांग अड़ाने के, बीच में पंचायत करने के, मन के उन संस्कारों या आदतों को छुड़ाना है।
मैं एक उदाहरण द्वारा इसे समझाता हूं। मां ने बेटे से कहा—'समझताही नहीं, निरा मूर्ख है।' इसे पुत्र ने सुना। इसी प्रकार उस लड़के ने किसी विरोधी या शत्रु से कहा—'समझते ही नहीं, बड़े मूर्ख आदमी हो ।' इसे भी उसने सुना। शब्दावली और श्रवण में कोई अन्तर नहीं है, मगर मन जब दोनों से हुई बात के साथ घुस जाएगा, तब परिणाम दो तरह के आयेंगे। मां के द्वारा कहे गये वे शब्द प्रिय लगेंगे, लेकिन वे ही शब्द शत्रु के द्वारा कहे जाने पर सुनते ही म्ह आग-बबूल हो उठेगा। शब्दों को केवल कानों से ही सुना जाता तो कोई अन्तर नहीं आता, मगर अन्तर इसलिए आ गया कि सुनने वाले ने मन से, पूर्व संस्कारों से सुना।
निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों से ग्रहण किया हुआ कोई भी विषय अपने आप में प्रिय का अप्रिय नहीं होता, किन्तु मन जब उसके साथ जुड़ जाता है तो प्रिय या अप्रिय की कल्पना करके एक पर राग और एक पर द्वेष करता है। चिन्तन से निवृत्ति का प्रतिसंलीनता का यह महान् सूत्र है इस यतमा (विवेक) का अभ्यास करने पर मन पर संयम स्वाभाविक हो जाएगा, इन्द्रियों से विषयों को आवश्यकतानुसार ग्रहण करने पर भी उनके साथ मन के न जुड़ने से राग ष, और उसके फलस्वरूप कर्मबन्ध नहीं होगा। क्योंकि कर्मबन्ध के मूल कारण राग और द्वेष ही हैं।'
प्रवृत्ति चाहे वोड़ी हो पर हो उत्कृष्ट रूप से बस्तुतः वर्तमान युग का साधक न से प्रवृति से अत्यन्त निवृत्ति कर सकता है, न बोलने की क्रिया से अत्यन्त निवृत्त हो सकता है, और न ही चिन्तन की क्रिया से सर्वथा विरत ! इसलिए यतना (विवेक) का तकाजा यह है कि साधक खाए-पीए, सोए-जागे, उठे-बैठे, बोले, चिन्तन करे या कोई भी क्रिया या प्रवृत्ति करे, उसमें 'अति' का छोड़ दे, न निवृत्ति की अति हो, न प्रवृत्ति की अति हो। परंतु एक बात का पूरा ध्यान जाये कि जैन धर्म में संख्या की अपेक्षा 'गुणवत्ता' का अधिक महत्त्व है, यहाँ 'क्वांटिटी' की अपेक्षा 'क्वालिटी' का मूल्ब ज्यादा है। इसलिए प्रत्येक किया का प्रवृत्ति, फिर चाहे सामायिक, पौषण, तप आदि उच्च क्रिया हो या प्रतिलेखन, प्रमार्जन, उच्चारादि, परिष्ठापन, सेवा आदि जैसी ही मानी जाने वाली क्रिया हो, भले ही थोड़ी १. (क) रागो य दोसो वि व कम्मबीयं
-उत्तरानध्ययन ३२७ (ख) इन्द्रिययस्येन्द्रियस्यायें रागदेषी व्यवसितौ। तयोर्न वशमागगच्छेती ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।
-गीता २ अकतं तुक्कटं सेय्यो, पच्छा तपति दुकटं।
कतं च सुकतं सेय्यो यं कत्वा नानुतप्यति ।।