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आनन्द प्रवचन : भाग ६
आवश्यक है। आज लोग अत्यधिक चिन्तन करने हैं, उसे हमें चिन्तन नहीं, चिन्ता कहना चाहिए। आज तो हम देखते है कि जैसे गृहस्थों को अपने परिवार की, स्त्री बचों की, व्यापार-धन्धे की एवं समाज या सरकार में सम्मान-प्रतिष्ठा की नाना चिन्ताएँ लगी हुई हैं, वैसे ही कई साधुओं को भी अपने सम्मान-प्रतिष्ठा की, अपनी सफलता की, अपने अनुयायी या शिष्य-शिष्या बढ़ाने की, ये और ऐसी अनेक चिन्ताएँ भूत की तरह लगी हुई हैं। अत्यधिक चिन्ता से उनके प्राणों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है। यही हाल अत्यधिक चिन्तन का है। यद्यपि चिन्ता जैसी भयंकर एवं घातक नहीं है, फिर भी चिन्तन से ऊर्जा का धीरे-धीरे हास होता है। एक दिन उसके लिए आवश्यक ईंधन समाप्त हो जाता है। वैसे तो प्रत्येक क्रिया या प्रत्ति शक्ति का हास करती है, किन्तु मन की प्रवृत्ति तो शरीर को अत्यन्त थका देती है। शरीर शास्त्री कहते हैं जो आदमी बहुत सोचता है, उसके शरीर में अनेक रोगा पैदा हो जाते हैं. उसका पेट ठीक नहीं रहता। उसकी आंतें भी खराब हो जाती हैं। इसलिए चिन्तन से शक्ति का जहां व्यय होता है, वहां अचिन्तन से शक्ति में वृद्धि निती है। चिन्तन के द्वारा हम इतना नही जान सकते, जितना अचिन्तन के द्वारा जान सकते हैं, क्योकि चिन्तन आत्मा का सहजधर्म नहीं, अचिन्तन आत्मा का सहजधर्म है। मगर अचिन्तन की स्थिति पाना कोई आसान काम नहीं है। विचारों का इतना तीव्र प्रवाह आता है, एक श्रृंखला के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी श्रृंखला आती है कि उसका तांता टूटता ही नहीं। ऐसी स्थिति में निर्विचारता या अचिन्तनता की बात सोचना भी कठिन होता है। फिर भी यह तो प्रत्येक साधक को मानना चाहिए कि चिन्तन की अपेक्षा अचिन्तन का महत्व बहुत अधिक है। यतना के द्वारा चिन्तन यता अति को कम किया जा सकता है, फिर क्रमशः अभ्यास के द्वारा थोड़े-थोड़े समय के लिए ध्यान के माध्यम से अचिन्तन की स्थिति में पहुंचा जा सकता है। चिन्तन-क्रिया से निवृत्ति का सरल उपाय : काना
चिन्तनक्रिया से निवृत्ति या अचिन्तन की पथति प्राप्त करने का एक और सहज और सरल उपाय यह है कि इन्द्रियों के प्रयोग के साथ मन का स्पर्श न होने देना। मन को इन्द्रिय विषयों से बिल्कुल अलिप्त या तटस्थ खड़ा रहने दो। चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियन्स से येन हुई ने पूछा-" मन पर संयम कैसे कर सकता हूँ?"
कन्फ्यूशियस बोला—'मैं तुम्हें एक सोडा-सा उपाय बता देता हूं। अच्छा वताओं कि तुम कानों से सुनते हो ? आंखों से देखते हो ? जीभ से चखते हो ? नाक से सूंघते हो?" येन ने कहा- 'हां।' कन्फ्यूशियस बोला-"मैं नहीं मान सकता कि तुम कानों से सुनते हो, देखते, चखते और सूंघते हो। आज से यह काम करो कि तुम मन से सुनना, देखना, चखना, सूंघना, छूना आर्कि बंद कर दो, केवल उसी इन्द्रिय से उसके योग्य विषय का ग्रहण करो. मन का स्पर्श उसे न होने दो।"
बहुधा लोग उस उस इन्द्रिय से ही उस विषय को ग्रहण नहीं करते, किन्तु मन से