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मलवान मुनि को तजते पाप :
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लेने से मानसिक क्षमता कम हो जाती है | मन के द्वारा जो बात कही जा सकती थी, उसमें साधक असमर्थ हो गया। प्राचीनकान के साधक पांच हजार मील दूरी पर बैठे हुए अपने किसी भक्त या शिष्य को कोई बात कहना चाहते थे तो वाणी का प्रयोग नहीं करते थे, वे अपने मन से ही विचारों को प्रेषित कर देते थे। विचार सम्प्रेषण की शक्ति से प्रायः वाणी की प्रवृत्ति कम से कम की जाती थी। मानसिक क्षमता बढ़ाकर ही विचार-सम्प्रेषण किया जा सकता था। आन वाणी का अत्यधिक प्रयोग करके मनुष्य ने अपनी इस मानसिक-क्षमता को दुर्घल का दिया है। प्राचीनकाल में आध्यात्मिक गुरु की आत्मशक्ति इतनी प्रबल होती थी कि उसके पास कोई शंका लेकर बैठता तभी उसका मन ही मन समाधान हो जाता, गुरु को बोलकर कहने की आवश्यकता नहीं होती थी। इसीलिए कहा गया है--
"गुरौस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छित्रसंशयाः।" 'गुरु के मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशय मिट गये।'
श्वेताम्बर मानते हैं कि तीर्थंकर । एक भाषा में बोलते हैं, और उपस्थित प्राणि-समूह (मनुष्य और मनुष्येतर) उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। वहाँ कोई अनुवादक या अनुवादक मशीन नहीं लो, फिर भी तीर्थंकर की दिव्यध्वनि विभिन्न । भाषाओं में स्वभावतः परिणत हो जाती है। न बोलने से यह शक्तिप्राप्त हो सकती है।
वचन की क्रिया से निवृत्ति का एक महत्वपूर्ण लाभ है-अनिर्वचनीयता के सिद्धान्त की उपलब्धि। अनिर्वचनीय वह है, जो कहा न जा सके। वेदान्त ने ब्रह्म को
अनिर्वचनीय कहा, बौद्ध दर्शन ने आत्मा, श्वर आदि १० बातों को अव्याकृत कहा इसी प्रकार जैन दर्शन ने कहा कि पूर्ण प्रत्य अवक्तव्य है---कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वाणी के द्वारा एक क्षण में हम एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकते हैं, शेष अनन्त धर्म दए जाते हैं, गौण हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में कह दिया-समग्र (पूर्ण) बस्तुतत्त्व अनन्त है, इसलिए अवक्तव्य है। फिर चाहे उसका कहने वाला सर्वज्ञ या परमात्मा ही क्षों न हो। इस प्रकार पूर्ण सत्य के विषय में न बोलना ही असत्य और विवाद से बचने का सर्वोत्तम उपाय है।
वचन-निवृत्ति से सबसे बड़ा लाभ है—सत्य की सुरक्षा। लोग अधिक बोलकर बहुत-सी दफा असत्य का समर्थन कर देते हैं। लेकिन न बोलने वाला इस पाप से बच जाता है। गुजराती में कहावत है—'न बॉलवामां नवगुण।' न बोलने, मौन रहने से आत्मिक-शान्ति, आत्मिक-ज्ञान एवं आत्मिक आनन्द की निधि को मनुष्य पा सकता है। इसलिए बाणी की क्रिया में प्रवृत्ति की तर वाणी की क्रिया से निवृत्ति के विषय में विवेक रखना यतनाशील साधक का कर्तव्या है।
मानसिक क्रिया से निवृत्ति का महत्त्व मन प्रवृत्ति का तीसरा साधन है। मन से साधक चिन्तन और विचार करता है। चिन्तन की प्रवृत्ति में जैसे विवेक की जरूरता है, वैसे चिन्तन से निवृत्ति में भी विवेक