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________________ यत्नान मुनि को तजते पाप : २ २४५ बहुत प्रभाव पड़ा कि 'बाबाजी तो समदर्शी हैं, वे राम का ही नहीं, कृष्ण का भी जप करते हैं।' परन्तु बाबाजी का आशय दूसरी पहाड़ी वाले बाबा जिसका नाम कृष्ण (किशन) था, को इस आशय का संकेत करना था कि 'रा - राह में, धा = दौड़ यानी अरे कृष्ण ! मैं तो यहां रुका हुआ हूं, राह में जो आदमी जा रहा है, उसे लूटने के लिए तू जल्दी दौड़कर पहुंच।" अपने साथी का संकेत मिलते ही किशन बाबा पहाड़ी की ओट में जा पहुंचा। उसने वहाँ से गुजरते हुए आदमी को पकड़कर एक पेड़ से कसकर बांध दिया। फिर पहाड़ी पर लौटकर जोर-जोर से बोलने लगा--"हर हाजरा हजूर, हर हाजरा हजूर !" किशन बाबा का यह संकेत था कि "यह आदांगो हाजिर है, अब क्या करूँ ?" परंतु ठाकुर साहब ने जब यह सुना तो सोचा- "अरे ! एक बाबाजी वहाँ भी भजन कर रहे अब पहले बाबा ने 'राधा कृष्ण' का जतप छोड़कर 'दामोदर कुंज बिहारी' का जाप चालू कर दिया। इन शब्दों से बाबाजी का किशन बाबा को संकेत था कि "दाम तो छीन लो और कूजे की तरह उसका सिर तोड़ दो-यानी काटकर कहीं डाल दो और बिहार कर (भाग) जाओ।" ठाकुर साहा पर बाबाजी के द्वारा अनेक नामों से प्रभु को पुकारने का बहुत प्रभाव पड़ा। उधर किशन बाबा फिर नीचे आया, राहगीर की जेबें टटोली तो उसके पास कुछ नहीं निकला, क्योंकि वह कोई धोबी था, उसने साहूकारों के स्वच्छ कपड़े जरूर पहन रखे थे, मगर पास में एक भी पैसा नहीं था। अतः किशन बाबा फिर ऊपर जाकर पुकारने लगा "निरंजन निराकार, निब्रेन निराकार ।" इस संकेत का अर्थ था—वह तो निरंजन निराकार है, यानी उसके पास तो कुछ भी नगद नारायण नहीं है। ठाकुर साहब ने सोचा--"वाह उधर निरंजन निराकार का भी जाप चल रहा है।" यह यह बाबा 'दामोदर कुंज बिहारी' का जाप छोड़कर कहने लगा-"रणछोड़ राय, रणछोड़राय।" इससे किशन बाबा के लिए संकेत था-"उसे अरण्य (जंगल) में छोड़ दो।" परन्तु ठाकुर साहब ने सोचा- "काबाजी तो 'रणछोड़राय' का भी जाप करते हैं।" ऐसे ही साधुओं के लिए महात्मा सत्तारशाह ने कहा है क्यूँ साधु को भेख लजावे, माधु-घर तो न्यारो है। जोग लियो, जुगती नव जाणी, जूठों ढोंग पसारो है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि जो साधु भजन या नामजप में प्रवृत्ति-निवृत्ति का वियेक छोड़कर दूसरों को ठगने के लिए उन दो धूर्त बाबाओं की तरह भजन या नामजप करते हैं, वे यतना से कोसों दूर हैं, पाप से छुटकारा पाने के बदले वे सौ मन पाप का बोझ और बढ़ा लेते हैं। इसलिए वाणी की क्रिया में कहाँ निवृत्ति हो, कहां प्रवृत्ति ? इसका विवेक करना ही यतना है, जिसेयलवान साधु करता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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