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________________ २४६ आनन्द प्रवचन भाग ६ इसी प्रकार चलने की क्रिया में भी गलवान साधु को प्रवृत्ति और निवृत्ति का विवेक करना आवश्यक है। साधु को इतना विवेकहोना चाहिए कि कहां चलना है ? कहां नहीं जाना है ? व्यर्थ ही भटकने का कोई मतलब नहीं होता। गमन क्रिया कहाँ, कब, कितनी दूर और कैसे करनी है और जहाँ, कब, कितनी दूर किस प्रकार करनी है ? यह विवेक करना ही गमनक्रिया की यता है । कई साधु जब कोई भक्त या श्रावक क देखता हो, तब तो बिना देखे, समय का ख्याल रखे बिना और बिना ही सोचे धड़ाधड़ चलते जाते हैं, और जब किसी श्रावक या भक्त को, या विपक्षी सम्प्रदाय के व्यक्ति को देखते हैं तो कदम फूंक-फूंककर रखने लगते हैं, यतनापूर्वक चलने का दिखावा करते हैं, यह गमनक्रिया में विवेक या यतना नही है, यह निरा दम्भ है, इससे कोई कन्याण नहीं होता। यतनापूर्वक गमन का प्रदर्शन माया से लिपटा हुआ होता है, उससे गप आते हुए कैसे रुकेंगे ? फूंक-फूंककर चलने की क्रिया से कैसे परवंचना होती है ? इसके लिए एक रोचक उदाहरण लीजिए एक बार बूढ़े सिंह को अत्यन्त भूख नगी, परंतु सिंह की वृत्ति के अनुसार वह दूसरे के द्वारा मारकर लाया हुआ मांस तो खा नहीं सकता था, स्वंय मारने जितनी ताकत शरीर में नहीं रह गई थी। अतः दृग़रा प्राणी स्वयं मेरे निकट आ जाए, इस दृष्टि से वह यतनापूर्वक फूंक-फूंककर चलने का अभिनय करने लगा। एक बंदर पेड़ की डाली पर बैठा-बैठा सिंह की इस यतनापूर्वक चलने की साधुवृत्ति देखकर बहुत प्रभावित हुआ। बंदर ने पेड़ की डाली पर बैठे-बैठे ही पूछा - "महाराज ! आप तो साधु की तरह बहुत ही फूंक-फूंककर कदम रखते हैं। आपमें यह जीव दया की वृत्ति कब से आ गई ?" सिंह बोला- "भाई !! मैंने अपनी जिंदगी में बहुत-से जीवों को मारा, अब मैं बूढ़ा हो चला हूं, अपनी अंतिम जिंदगी में मैं जीव दया की वृत्ति धारण करके प्रत्येक कदम संभल-संभल कर रखता हूं कि कोई भी जीव न मर जाए। सिंह की नकली यतना से प्रभावित होकर बन्दर उस साधुरूप सिंह के चरण छूने के लिए उसके निकट आया। परन्तु यह ऋण ? बन्दर के निकट आते ही सिंह ने उसे दबोच लिया। मगर बन्दर भी चालाक था। वह सिंह की धूर्तता समझ गया और जोर से हंसने लगा। बन्दर को हंसते देख सिंहने पूछा - " अब मृत्यु के समय हंसते क्यों हो ?" बन्दर ने कहा- "आप मुझे थोड़ी देर के लिए छोड़कर अपनी बात कहने दीजिए। " सिंह ने विश्वास करके बन्दर को छोड़ दिया। छोड़ते ही बन्दर उछलकर पुनः वृक्ष की डाली पर जा पहुंचा और कहने लगा- "तुम जैसे कपटी एवं नकली दयालुओं को देखकर ही मुझे हंसी आ गई थी। दूसरों को फंसाने के लिए तुमने कपटक्रिया का अच्छा जाल बिछा रखा हैं। " बन्धुओ ! साधु जीवन में इस प्रकार की कपटक्रिया नहीं होनी चाहिए, इस प्रकार यतना का नाटक करने से पापतर्म का बन्ध होता है, जिससे पुनः पुनः जन्म-मरण करना पड़ता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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