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________________ पत्नवान मुनि को तजते पाप : २ २४३ आपने एक वंचक भक्त की कहानी सुनी होगी, जिसने मौन धारण करके भक्तजी के पड़ोस में रहने वाले एक ग्वाले की गाय वे खरीदार को ठग लिया। जब उसने भक्तजी पर विश्वास करके गाय के सम्बन्ध में पूछा तो उसने मौन ही मौन में सामने पड़े हुए एक पत्थर की तरफ इशारा कर दिया। करीदार समझा कि गाय ४-५ सेर दूध देती होगी, पर घर ले जाने के बाद अनेक कोधेिशों के बाद भी जब गाय ने जरा भी दूध न दिया, तब उस खरीदार के मन में भक्तको के प्रति संदेह और अविश्वास पैदा हुआ। वह उनसे समाधान करने के लिए आया तो आशय बदलते हुए भक्तजी बोले---''मैंने कब कहा कि वह गाय ५ सेर दूध देती है। मैंने पत्थर की ओर इशारा इसलिए किया था कि तू समझ जाए कि यह पत्थर दूध देता हो तो यह गाय दूध दे। पर तू न समझा, इसका मैं क्या करूँ?" इस प्रकार जो लोग वाणी, क्रिया से दूररों को ठगने के लिए निवृत्ति धारण करते हैं, वे यतना तो क्या करते हैं, अनेक पपकर्मों का उपार्जन करके संसार में बार-बार जन्ममरण करते रहते हैं। इसी प्रकार कई साधक स्वाध्याय करके बोलने की प्रवृत्ति करते हैं, परन्तु अगर वे अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करते हों, स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न करते हों तो उनकी यह प्रवृत्ति यतना (विवेक) युक्त नहीं कही जा सकती। कई लोग तो भगवान का भजन करने का बहाना करके सारी-सारी रात भर भजन करते हैं, कीर्तन करते हैं, जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर करते हैं या लाउडस्पीकर लगाकर उस पर 'हरे राम हरे कृष्णा की रट लगाते हैं। इससे दूसरों की नींद में खलल पहुंचती है। भजन करना अछा है, पर इसमें भी विवेक की आवश्यकता है। रात को जब कि सब लोग सोये हों, तब जोर-जोर से बोलकर भजन करने में क्या तुक है ? क्या भगवान को सुनाने के लिए आपको भजन करना है ? भगवान को तो आपके भजन सुनने की या अपने गुणगान सुनने की कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वे तो कृत-कृत्य हो चुके हैं, उन्हें अपने गुणगान से कोई मतलब नहीं है। यदि कहें कि भगवान को तो अपनी भक्ति या पूजा-सेवा से कोई मतलब नहीं, कोई करे चाहे न करे, परन्तु भक्त को तो भगवान की स्तुति, गुण-कीर्तन, गुणगान या भक्ति जोर-जोर से बोलकर करनी चाहिए, ताकि भगवान के ध्यान में भक्त या भक्त की भक्ति आ जाए और भक्त पर संकट के समय वे तुरंत दौड़े आएं मगर आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि भक्त यदि जोर-जोर से न बोलकर मन ही मन मंद स्वर में धीरे-धीरे बोलता है, तब भी भगवान को उसकी भक्ति का पता लग जाता है। भगवान कोई बहरे नहीं हैं या अल्पज्ञ नहीं हैं कि उन्हें भक्त के हृदय से उठने वाली भक्ति की लहर का पता न चले। वे तो अन्तर्यामी हैं, वे भान की जोर-जोर से की हुई आवाज
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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