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________________ २४२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ वाणी पुण्य का भी कारण है और पापका भी। इसलिए वाणी का प्रयोग और उपराम बहुत ही सावधानी से करना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने एक दोहे में बहुत ही सुन्दर कह दिया है, इस सम्बन्ध में प्रेम-वैर अरु पुण्य-अघ, यश-अपयश, जय हान । बात बीज इन सबन को, 'तुलसी' कहहिं सुजान । ऐसे ही बिना किसी प्रयोजन के आवेश में आकर मौन कर लेने और अंदर ही अंदर किसी के प्रति द्वेष, रोषवश घुटते रहने कुढ़ते रहने से वह वाणी की निवृत्ति पुण्यजनक नहीं, पापजनक ही बनेगी। मुझे एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है, इस प्रसंग पर किन्ही जाट-जाटनी में एक बार आपस में झगड़ा हो गया। इससे परस्पर बोलचाल बंद हो गई। दोनों के रहने का झोपड़ा तो एक ही था। फलतः रात को दोनों एक दूसरे से विपरीत दिशा में मुंह करवेत सो गये। मन ही मन दोनों घुटते रहे, एक दूसरे के विरुद्ध चिन्तन करते रहे, पर बातचीत बिल्कुल नहीं की। खैर, रात तो किसी तरह बीत गई। सूरज उगते ही किसानानोग खेतों पर जाने लगे। पर जाट कैसे जाता? वह तो भूखा था। इधर जाटनी ने सांचा-ये कैसे आदमी हैं, सब लोग खेतों पर जा रहे हैं, ये निश्चित बैठे हैं यहां। खेता में नुकसान हो रहा है काम के बिना। . आखिर जाटनी ने जाट के साथ न बोलने को अपनी टेक रखते हुए एक तरकीब निकाली। उसने जाट के सामने न देखकर दूसो ओर मुंह करके कहा "लोग चाल्या लावणी, लोग क्यूँ नी जाय जी ?" अर्थात्-'गाँव के किसान फसल काटी जा रहे हैं, ये क्यों नहीं जाते ?" जाट भी इसी तरकीब को अजमाते हुए मुँह फेरकर बोला "लोग चाल्या खाय-पीय, लीग कांई खाय जी ?" इस पर जाटनी ने भी उसी तरह मुंह फेकर उत्तर की पूर्ति की “ीके पड़ी राबड़ी, उतार क्यूं नी लेय जी ?" तब जाट ने मामला समेटते हुए कहा--- "अब तो आपा बोल्या चाल्या घाल क्यूँ न देय जी।" बस झगड़ा समाप्त। जाटनी ने छींके पर से रोटी-राबड़ी उतराकर भोजन परोस दिया। जाट खा-पीकर खेत पर काम करने के लिए चल पड़ा। ___ हाँ, तो जाट-जाटनी की तरह रोष या द्वेषवश वाणी की क्रिया से निवृत होना कोई यतना नहीं है, बल्कि अयतना है। इसी प्रकार कई साधक दूसरों को धोखा देने या ठगने अथवा अपने जाल में फंसाने के लिए वचनक्रिया से निवृत्त होकर मैमी बनकर रहने का ढोंग करते हैं, परन्तु एक न एक दिन उनकी पोल खुल जाती है । लोकश्रद्धा उनके प्रति समाप्त हो जाती
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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