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________________ यतावान मुनि को तजते पाप : २ २४१ अनाकारक है। बाईं करवट सोना स्वास्थ्य के लिए ठीक बताया गया है, इसी प्रकार लेटे-लेटे पढ़ना या अत्यधिक मोटी कमल गुदगुदी शय्या पर सोना भी वर्जित किया है। आलस्यवश बिना प्रयोजन, नींद न आती हो तो भी पड़े रहना, तथा अनेक चिन्ताएं लेकर या कामोत्तेजक अश्लील साहिता या दृश्य को पढ़-सुन या देखकर सोना भी यतना में बाधक है। जागकर भी रात को जोर-जोर से चिल्लाना, बोलना अथवा दूसरे साधुओं या लोगों की नींद हराम करना भी यतना के खिलाफ है। इसी प्रकार विहारचर्या के अन्तर्गत श्वाप्तक्रिया भी आती है। श्वासक्रिया में भी विवेक रखना परमावश्यक है। श्वास-क्रिया लीक के बजाय मुंह से लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसी प्रकार गंदी, विकृत, घिनौनी, दुर्गन्धयुक्त या नमी वाली जगह मे रहकर श्वास लेना भी रोगवर्द्धक है, रात को वृक्ष के नीचे सोने से वृक्ष की कार्बन गैस श्वास के साथ प्रविष्ट हो जाती है और वह मनुष्य की आक्सीजन (प्राणवायु) को खींच लेती है। इसी प्रकार साधु को वोलने की क्रिया में यतना (विवेक) रखना अत्यावश्यक है। क्या बोलना, कैसे बोलना, कब बोलना, कितना बोलना ? आदि विवेक वाणी की क्रिया के विषय में रखना चाहिए। कई लोग कहते हैं कि बोलने से दोष आता है, विवाद बढ़ जाता है, संघर्ष हो जाता है, इसलिए साधु को सर्वथा मौन हो जाना चाहिए, बोलने की क्रिया से निवृत्त हो जाना जाहिए। परन्तु एकान्त रूप से यह बात ठीक नहीं। जहाँ साधु को यह लगे कि बोलनि से व्यर्थ का विवाद बढ़ने की, कलह होने की, द्वेष और वैर बढ़ने की आशंका है, जहां उसे अवश्य ही बोलने की क्रिया से निवृत्ति लेना है, परंतु जहां बोलना आवश्यक है, वहां उसे बोलने की प्रवृत्ति से दोष आने की शंकामात्र से निवृत्त नहीं होना खाहिए। वहाँ संयमपूर्वक यतनापूर्वक वचनशुद्धि का विवेक रखते हुए बोलना शास्त्र उत्तराध्ययन अ० २४ ) में निर्दिष्ट है— कोहे माणे य मायाए, त्रोभे य उवउत्तया । हासं भए मोहरिए विक्रहासु तहेब य । ६ । एयाई अठठाणाई परिबजित्तु संजए । असावज्रं मियंकाले भासं भासिज पत्रवं । १० । "क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य (व्यर्थ बकवास ) एवं विकथाएँ, इन आठ स्थानों से युक्त वाचिक क्रिया को छोड़कर प्रज्ञावान (विवेकी) एवं संयमी साधु अवसर आने पर, असावद्य (निरवद्य) एवं परिमित वचन बोले।" दशवैकालिक सूत्र का सातवाँ अध्ययन तो सारा का सारा संयमी साधु की वाक्यशुद्धि के निर्देशों से भरा है। अतः वाणी की क्रिया से केवल निवृत्ति करना ही साधु जीवन का लक्ष्य नहीं, अपितु निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों का विवेक चलना ही उसके लिए अभीष्ट है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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