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आनन्द प्रवचन भाग ६
नहीं है, अपितु कैसे खाना, कितना खाना, जब खाना, किस दृष्टि से खाना, किन नियमों से मिले तो खाना ? इत्यादि विवेक भी आवश्यक है।
अब आइए नीहार के सम्बन्ध में विवेक पर जैसे आहार के विवेक के सम्बन्ध में साधक को सैंकड़ों हिदायतें दी गई हैं, वैसे ही नीहार के विषय में भी । मलोत्सर्ग क्रिया ठीक न होने से या कोष्ठबद्धता होने से अथवा नियमित समय पर मलविसर्जन न करने से अपानवायु दूषित होती हैं, उससे प्रवासीर, भगंदर, चर्मरोग आदि अनेक व्याधियाँ हो जाती हैं। मलोत्सर्ग क्रिया ठीवत न होने से पेट भारी-भारी रहता है, मानसिक प्रसन्नता नहीं रहती और न ही बीरिक श्रम ठीक होता है। उससे आलस्य, जड़ता और बुद्धिमन्दता होती है। शास्त्र में महाव्याधियों के कारणों में इन कुदरती हाजतों का रोकना भी एक कारण बताया गया है। शास्त्र में तो इन प्राकृतिक आवेगों को रोकने का जगह-जगह निषेध किया गया है। दशवैकालिक सूत्र में साधक को गोचरी जाते समय आवेगों को रोकने का स्पष्ट नेषेध किया है—
"गोपरग्गपविट्ठोउ वजमुत्तं न धारए"
इसलिए आहार की तरह नीहार सम्बन्ध विवेक भी यतना से सम्बन्धित है। वेग निरोध महारोग का कारण होने से उसका शिवेक न करने पर दूसरों से सेवा लेने, पराधीन बन जाने तथा चिकित्सा में आरम्भसमारम्भ वृद्धि का पाप बढ़ जाने की संभावना है।
बिहार को भी शास्त्रकारों ने यतना (विधिक) की कसौटी पर कसा है। बिहार का अर्थ है-- नियमित उठने-बैठने, सोने-जागने के चर्या । जिस प्रकार एक साथ अत्यधिक खा लेना सब प्रकार से हानिकर है, वैसे ही एक साथ अत्यधिक बैठे रहना, खड़े रहना, सोते रहना या जागते रहना, अत्यधिक घूमते । रहना या बहुत ज्यादा भ्रमण करना भी स्वास्थ्य, शान्ति और संयम की दृष्टि से हानिवर है, यह अयतना है। इन सब क्रियाओं को अत्यधिक करने से या तो अग्रिमन्दता आ जाती है, या जीवनीशक्ति क्षीण होती है । वास्तव में प्रत्येक क्रिया के साथ वित्रिक और संतुलन होना आवश्यक है। शास्त्रकारों ने जगह-जगह इन क्रियाओं में संतुलन और विवेक रखने का संकेत किया है। इन सब क्रियाओं को यतनापूर्वक (विवेक और संतुलनपूर्वक) न करने से रोगोत्पत्ति, परवशता, स्वास्थ्य और शक्ति ब्ता नाश आदि होते ही हैं, फिर आरम्भ, आर्त्तध्यान आदि पापों में वृद्धि होनी भी स्वाभाविक है।
विहारचर्या में दैनिक चर्या से सम्बन्धित सभी बातें आ जाती हैं। जैसे अत्यधिक मात्रा में उठने-बैठने, सोने-जागने आदि का भी विरोध किया गया है, वैसे ही अविवेकपूर्वक उठने-बैठने, सोने-जागने आईि का भी निषेध है। आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से साधक के लिए विधिवत् न बैठना, झुककर या अकड़कर बैठना अथवा रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर न बैठना हानिकारक है, वह जैनशास्त्र की दृष्टि से भी