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________________ पल्लमान मुनि को तपते पाप : २ २३६ सकता। इसलिए शास्त्रकार ने धर्मचिन्तन हेतु साधु को आहार करने की छूट दी है। जिस प्रकार आहार क्रिया में प्रवृत्ति काने के लिए यलाचार (विवेक) बताया है, वैसे ही आहार क्रिया से निवृत्ति के लिए भी कारण बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं आर्यके उपसम्गे तितिम्बया बंभचेरगुत्तीसु। पाणिदया तबहे सरीस्कुच्छेवषट्ठाए। (१) आतंक उपस्थित होने पर, (२) उपसर्ग आ पड़ने पर, (३) तितिक्षा–कष्ट सहिष्णुता के लिए, (४) ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए, (५) प्राणियों की दया के लिए, (६) तपस्या के कारण, तथा शरीर का व्युत्सा (आमरण अनशन--संथारा) करने की स्थिति में, इन ६ कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर साधु आहार-त्याग करे। किसी गाँव, नगर या देश में आतंक छाया हुआ हो, दंगा-फसाद हो, कोई . हत्याकाण्ड हो रहा हो, उस समय मुनि को उपहार न मिलने पर मन में आर्तध्यान न करके स्वयमेव प्रसन्नता से आहार-पानी का त्याग आतंक के दूर न होने तक या कप! आदि प्रतिबन्ध न हटने तक कर देना चाहिय। इसी प्रकार भूकम्प, बाढ़, महामारी आदि किसी प्राकृतिक प्रकोप या दैवी या मानुषी किसी उपसर्ग के आ पड़ने पर भी मन में आतध्यान न करके समभावपूर्वक आहार-पाने का त्याग करें। इसी प्रकार किसी समय प्रासुक्, एषणीय या कल्पनीय आहार-पानी का योग न मिलने पर अथवा बीमारी, अशक्ति या गुरु आी प्रिय जनों का वियोग होने के प्रसंग में समभाव व सहिष्णुता की दृष्टि से आहार-पानी का त्याग करे। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए भी आहार-पानी का त्याग करना पड़े, तो सहर्ष त्याग करें, इसी प्रकार धर्मरुधि अनगार की तरह जीवदया के लिए भी माहार-पानी का त्याग करना पड़े तो प्रसन्नतापूर्वक करें। कोई विशिष्ट तप किया हो, तब तो आहार या आहार-पानी का त्याग होता ही है। किन्तु तपस्या के दौरान ह मन ही मन आहार-संज्ञावश अमुक आहार आदि की कल्पनाएं या योजनाएँ न बनाएं, पारणे में अमुक आहार के सपने न संजोए। इसी प्रकार आमरण अनशन (संलेखनापूर्वक संथारा) किया हो तब भी आहारादि की मन में भी कल्पना न करें। कदाधित रोग मिट जाने या शरीर स्वस्थ हो जाने पर भूख लगी तो भी प्रतिज्ञाबद्ध होने के बाद आहारादि त्याग निर्जरा का कारण समझकर उसके लिए मन को विचलित न की आहार क्रिया से निवृत्ति के ये ६ कारण यतना (विवेक) के ही प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त ग्रहणैषणा, गवेषणा और परिमोगैषणा का विवेक आहारादि के विषय में करना भी यतना है। उद्गम, उत्पादन और एषणा के आहारादि सम्बन्धी ४२ दोषों को वर्जित करके लेना और उपभोग करना भी विवेकपूत होने के कारण यतना है। मतलब यह है कि आहारादि के विषय में क्या खाना। इतना ही विवेक पर्याप्त
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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