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सत्यशरण सदैव सुखदायी
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असत्यता नहीं आने देगा, और न अपने ग्बहार में कभी असत्यता का अवलम्बन लेगा। वह व्यापार में, राजनीति में, धर्म और समाज के क्षेत्र में यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, हर मोड़ पर सत्य का ही अवलम्बन लेगा। परमात्मा को सत्यमय मानकर वह सत्यनिष्ठा से जरा भी नहीं चूकेगा। मनुष्य लोभ, भय, क्रोध, हास्य, द्वेष, ईर्ष्या, अंधविश्वास, अहंकार आदि विकारों के वशीभूत होकर सत्य से चूक जाता है। किन्तु सत्यव्रतधारी सर्वत्र सत्य के रंग में रंगा रहेगा। वह सत्य की रक्षा के लिए सतत संघर्ष करेगा। सत्याचरण में कठिनाइयों, विमं आदि को देखकर वह पीछे नहीं हटेगा, न असत्य का आश्रय लेगा। सत्य का माहात्म्यरा बताते हुए महाभारत में कहा है—
सत्यं ब्रह्म तपः सत्यं, मत्यं विसृजते प्रजाः।
सत्येन धार्यते लोकः, सः सत्ये प्रतिष्ठितम् ।। -सत्य ब्रह्म है, सत्य तप है, सत्य ही जनता को जन्म देता है, सत्य ही सारे संसार को धारण करता है, संसार के सभी पदार्थ सत्य पर प्रतिष्ठित हैं।
सत्य का साधक साध्यशुद्धि की तरह साधनशुद्धि पर भी पूरा ध्यान देता है।
चेदवादी कट्टर ब्राह्मण शय्यंभव यज्ञ कर रहे थे, उस समय आचार्य प्रभव के शिष्यों ने यज्ञशाला के निकट से गुजरते हुए कहा—“अहो कष्ट, अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते।" शय्यभवके पाण्डित्य को यह चुनौती दी। इतना बड़ा पण्डित और अभी तक तत्त्व का ज्ञान नहीं कर पाया। उन्होंने जैन मुनियों से पूछा - "भला, यह तो बताओ, यथार्थ तत्त्व क्या है ?"
___ 'यथार्थ तत्त्व जानना है तो वह हमारे गुरुदेव की चरणसेवा से ही उपलब्ध हो सकेगा।" मुनियों ने उत्तर दिया।
शय्यंभव सीधे आचार्य प्रभव स्वामी के पास आए। उनसे पूछा---'बताइए तत्त्व क्या है ?" - आचार्यश्री ने कहा- "तुम यज्ञ कर रहे हो, लेकिन अभी तक जान नहीं पाए कि यज्ञ क्या है ? सुनो, यज्ञ करना तत्त्व है। परन्तु कौन-सा यज्ञ ? बह पशुवध-मूलक नहीं, आध्यात्मिक यज्ञ। यज्ञ बाहर में नहीं, भीतर में करना है। मन में जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, मद, मासर आदि पशु बैठे हैं, उन्हें होमना है; उनकी बलि देना है। यही सच्चा यज्ञ है।" जस, शय्यंभव ने जब से यह सत्य पाया, वे शीघ्र उस सत्य के सामने झुक गए। वहीं आचार्य प्रभव स्वामी के शिष्य बन गए। उनके श्रीचरणों की सेवा करके वे जैन चगत् के ज्योतिर्धर आचार्य बन गये।
सत्यशरण में जाने वाले में इतनी ही नम्रता होनी चाहिए। सर्वस्व समर्पण की वृत्ति ही सत्यशरण के लिए अपेक्षित है। बावहारिक जगत् में भी सत्यशरण ग्रहण करने वाले को अपना लेन-देन, तौलनाप, सोचना-विचारना, बोलना-चलना, संकल्प-सुकल्प सभी सत्य की धुरा पर कररूप चाहिए। जैसा कि पाश्चात्य लेखक इमर्सन (Emerson) ने कहा है