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________________ यत्नवान मुनि को रजते पाप : २ धर्मप्रेमी बन्धुओ! कल मैंने आपके समक्ष गौतम कुलक के अट्ठाइसवें जीवनसूत्र पर प्रकार डाला था। परन्तु इसी विषय से सम्बन्धित अन्य पालुओं तथा यतना के अन्य अर्थों पर प्रकाश डालना जरूरी था, इसलिए आज मैं उमो जीवनसूत्र पर अपना चिन्तन प्रस्तुत करूँगा। यतना का दूसरा अर्थ : विवेक मैं पिछले प्रवचन में बता चुका हूँ कि याला केवल प्रवृत्ति ही नहीं है, और न ही केवल निवृत्ति है। यतना प्रवृत्ति-निवृत्ति का हवेक करना है। जहाँ जिस प्रवृत्ति में दोष आने की आशंका हो, वहाँ उससे निवृत्ति करना आवश्यक है। जहाँ निवृत्ति में दोष आने की आशंका हो, वहाँ प्रवृत्ति करना आवश्यक है। कई लोग प्रवृत्ति करते करते ऊब जाते हैं या जब उन्हें वृद्धावस्था आ जाती है, तब वे निवृत्ति धारण करना चाहते हैं। परन्तु माधु-जीवन में ऐसी बात नहीं है और न ही होनी चाहिए। अगर साधु किसी अच्छी प्रकृत्ति से घबराता है, ऊबता है या उससे किनाराकसी करना चाहता है, वह भी निवृत्ति के नाम से, तो समझिए कि उसकी वह निवृत्ति यतनामुक्त नहीं है, और वह जिस निवृत्ति की बात कह रहा है, वह भी यतनामुक्त नहीं होगी। किसी भी शुभ या शुद्ध प्रवृत्ति से भागना यतना नहीं है। न ही निवृत्ति के नाम पर आलस्य-पोषण करना, आरामतलबी चाहना यतना है। जो स्वाभाविक एवं दैनिक प्रवृत्ति है जिससे संयमी जीवन की पोषण मिलता है, उस प्रवृत्ति को विवेकपूर्वक करना ही यतना है। साधु जीवन में तीन प्रवृत्तियाँ अनिवार्य हैं (9) आहार, (२) बिहार और (३) नीहार। जब बाह्य तपस्या न हो तब आहार वरना आवश्यक है। परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २६) में बताया है कि साधु को ६ वतरणों से आहार करना चाहिए वेषण वेयावच्चे इरिपट्ठार! य संजमाए। तह पाणवत्तियाए, छत पुण धम्मचिंताए।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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